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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३३१ गुंथे हुए थे। नीलयशा को उपस्थित देखकर ज्योतिषी ने राजा से कहा : “सम्प्रति, शुभ निमित्त और सुन्दर मुहूर्त है, स्वामिपाद (वसुदेव) के साथ नीलयशा का पाणिग्रहण करा दीजिए।” तभी, सैकड़ों बाजे बज उठे। सुहागिन स्त्रियाँ गीत गाने लगीं। सूत और मागध प्रशस्ति-पाठ करने लगे।
वसुदेव मण्डप (विवाह-मण्डप) में उपस्थित हुए। स्नानपीठ तैयार किया गया। कन्यापक्ष के सम्बन्धी जन नीलयशा को भी वहाँ ले आये । निकायवृद्धों और सधवा स्त्रियों ने ('निकायवुड्डेहिं अविहवाहि य) सुगन्धित जल से भरे स्वर्णकलशों से (वर-वधू का ) अभिषेक किया। मन्त्रज्ञ पुरोहितों ने अग्नि में हवन किया । राजकुमारी नीलयशा ने वसुदेव का हाथ पकड़ा। दोनों ने अग्नि की प्रदक्षिणा की। अंजलि भरकर लावा छींटा। आशीर्वाक्य कहे गये। उसके बाद वसुदेव ने भी हंसधवल रेशमी वस्त्र पहने। फिर, प्रेक्षागृह में वर-वधू को बैठाकर उनका विशिष्ट संस्कार किया गया। सोने का दीपक जलाया गया। उसके बाद परिचारिकाओं ने वर-वधू को शयनगृह में प्रवेश कराया। वसुदेव मणिरत्नखचित, सौरभसिक्त, मालाओं से अलंकृत, मृदुल बिछावन से सुसज्जित, गंगा के पुलिनतट की भाँति रमणीय तथा पादपीठ की सीढियों से युक्त पलंग पर चढ़े। रतिसुख से सनाथ वसुदेव की रात्रि सुखपूर्वक बीती।
प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में, प्राचीन युग में प्रचलित, विवाह के प्रारम्भिक उपक्रम से सुहागरात तक की विधियों के वर्णनों को समासित किया गया है। वर्णन के क्रम में ही विवाहकालीन और भी अनेक सामाजिक संस्कृतियों के उज्ज्वल चित्र उद्भावित हुए हैं। उस काल में यत्र-तत्र भ्रमण करके आने पर स्नान के पश्चात् ही घर में प्रवेश करने का सामान्य नियम था। इसीलिए, वसुदेव को स्नान कराने के बाद ही राजभवन में ले जाया गया था। विशिष्ट अतिथियों को स्नान प्राय: दासियाँ ही कराती थीं। ससुर की ओर से वर का विराट् स्वागत किया जाता था। विवाह में सफेद रेशमी वस्त्र और सफेद फूल भी मंगलसूचक समझे जाते थे। वर-वधू को प्रेक्षागृह (नाट्यशाला) में बैठाकर उनका प्रसाधन किया जाता था।
विवाह-मुहूर्त के निर्धारण में ज्योतिषियों का कथन प्रमाण माना जाता था। विवाह के मंगलमय अवसर पर निकायवृद्ध आशीर्वाद देते थे और पुरोहित पुण्याहवाचन करते थे। मंगलगीत गाने के लिए सधवा स्त्रियाँ ही अधिकृत थीं। सधवा स्त्रियाँ और निकायवृद्ध मिलकर ही वर-वधू का अभिषेक करते थे। अग्नि की प्रदक्षिणा करने और अंजलि में भरकर लावा छींटने तथा सोने के दीपक जलाने की विधि भी प्रचलित थी। सुहागरात मनाने के लिए शयनगृह की शानदार सजावट की जाती थी। मणियों और मालाओं, से अलंकृत करके उसे गन्धद्रव्यों से सिक्त किया जाता था। ऊँची सोहाग-शय्या पर मृदुल बिछावन बिछाया जाता था, जिसपर वर-वधू के आरोहण के लिए रमणीय पीदपीठ की सीढ़ियाँ लगाई जाती थीं। इस प्रकार, उस युग में विवाह
१. यहाँ कथाकार ने धार्मिक संस्कारों के अवसरों पर पुरोहितों द्वारा तीन बार 'पुण्याहम्' (यह शुभदिवस है)
के उच्चारम करने के यथाप्रचलित विधान की ओर संकेत किया है। 'वाशिष्ठी हवनपद्धति' में यजमान और ब्राह्मण के उत्तरप्रत्युत्तर के रूप में 'पुण्याहवाचन' का विशद उल्लेख हुआ है । एक उदाहरण : यजमानो ब्रूयात् बाम्यं पुण्यमहर्यच्च सृष्ट्युत्पादनकारकम्।
वेदवृक्षोद्भवं पुण्यं तत्पुण्याहं बुवन्तुनः ॥ ब्राह्मणाः- ‘ओं पुण्याहम्' इति त्रि—युः।