SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा को वरण कर लेने के बाद रोहिणी के पिता राजा रुधिर को निराश क्षत्रिय राजाओं से भयानक युद्ध करना पड़ा था। ___ 'वसुदेवहिण्डी' से यह ज्ञात होता है कि उस युग में विवाह के मामले में कन्याओं की दो स्थितियाँ थीं- कुछ तो स्वतन्त्र थीं और कुछ परतन्त्र, यानी पिता के अधीन। वसुदेव अपने पूर्वभव में जब नन्दिसेन के रूप में अपने मामा के घर रहकर, मामा की गायों की सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते थे, तभी मामा ने उन्हें अपनी तीन पत्रियों में किसी एक से विवाह करा देने का आश्वासन दिया था। परन्तु, तीनों पुत्रियों ने नन्दिसेन के साथ विवाह करने से साफ इनकार कर दिया था (श्यामा-विजयालम्भ : पृ. ११५)। इस घटना के ठीक विपरीत, नीलयशा से जब वसुदेव का विवाह हो गया, तब विद्याधर नीलकुमार ने निकायवृद्धों के निकट अपना अभियोग उपस्थित किया कि नीलांजना की पत्री नीलयशा तो पहले से ही मेरे पत्र नीलकण्ठ को दे दी गई है। उसे ही सिंहदंष्ट्र ने मनुष्यलोकवासी को दे दिया। इसलिए, आप न्याय कीजिए। निकायवृद्धों ने जब इस सम्बन्ध में जिज्ञासा की, तब नीलांजना और नीलकुमार ने अपने बचपन में खेल-ही-खेल में की गई विवाह-विषयक शर्तबन्दी की कहानी कह सुनाई। कथा है कि नीलांजना और नीलकुमार नीलगिरि-स्थित शकटामुखनगर के विद्याधरनरेश नीलन्धर की सन्तान थे। इन दोनों ने बचपन में खेल-ही-खेल में यह बात पक्की कर ली थी कि हमदोनों की जो सन्तानें होंगी, उनका एक दूसरे के साथ विवाह कर देंगे। नीलकुमार का अभियोग सुनकर निकायवृद्धों ने अपने निर्णय में कहा : “कन्यादान की यह शर्त उचित नहीं है। कन्या तो पिता के अधीन होती है। पिता के विना जाने कन्यादान का अधिकार सम्भव नहीं है। ('न जुज्जइ दाणं, कण्णा पिउवसा, पिउणा अविदिण्णा न पभवति किंचि दाउं" नीलयशालम्भ : पृ. १८१) । संघदासगणी ने यह भी सूचित किया है कि उस युग में, प्राय: पिता द्वारा ही कन्यादान करने का नियम था। कथा है कि सूक्ष्म नामक उपाध्याय ने पहले तो अग्नि में हवन कराया, तत्पश्चात् राजा अभग्नसेन (पद्मा के पिता) के द्वारा वसुदेव से पद्मा का पाणिग्रहण कराया (पद्मालम्भ : पृ. २०५)। इसके विपरीत, माँ की अनुमति से भी कन्यादान होने की प्रथा की ओर भी कथाकार ने संकेत किया है। चारुदत्त का वसन्ततिलका के साथ विवाह वसन्ततिलका की माँ की अनुमति से ही ("अम्माणुमएण...स समपिओ"; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४३) हुआ था। किन्तु, यह विवाह एक विशेष परिस्थिति में ही हुआ था। और, यह भी ध्यातव्य है कि गणिकापुत्री के लिए उसकी माता ही एकमात्र अभिभाविका हो सकती है। कथाकार के वर्णनानुसार, यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में माताएँ अपनी पुत्रियों के लिए वर (जामाता) के कुल के बारे में सहज जिज्ञासा रखती थीं। पद्मावती की माँ को वसुदेव के कुल-वंश के बारे में आशंका हुई थी और उसने इस सम्बन्ध में ज्योतिषी से विचार-विमर्श के लिए आग्रह किया था (पद्मावतीलम्भः पृ. २०४) । उस युग में, जामाता को 'स्वामी' या 'स्वामिपाद' शब्द द्वारा सम्बोधित करने की प्रथा थीं। (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३२)। पलियाँ अपने पतियों को प्राय: 'आर्यपुत्र' शब्द से सम्बोधित करती थीं। यों, छोटे-बड़े सम्बन्धियों के लिए सामान्यत: 'आर्यमिश्र', 'आर्य', 'तात', 'वत्स' आदि स्नेहसूचक या आदरबोधक सम्बोधन-पदों का व्यवहार प्रचलित था। कुमारी स्त्रियाँ 'कन्या' और विवाहिताएँ 'देवी' कहलाती थीं। राजकन्याएँ
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy