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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३२७ को जोड़ते हुए कहा : “महाकाल नामक परम अधार्मिक देव था। चूँकि, उसे (सुलसा द्वारा उसकी उपेक्षापूर्वक राजा सगर को वरण कर लेने के कारण) राजा सगर के प्रति द्वेष था, इसलिए उसे नरक-गमन के कारणभूत पशुवध के लिए प्रोत्साहित किया। परम्परा-क्रम से इस पशुवध की प्रथा को पिप्पलाद ने ग्रहण किया और उसने पशुवध (प्राणिवध) के सिद्धान्त को शास्त्रीय रूप देने के लिए अथर्ववेद की रचना की।”
संघदासगणी द्वारा वर्णित वेदों की उपर्युक्त उत्पत्ति-कथा से पुरायुगीन वेदाभ्यास की प्रथा की सूचना के अलावा वैदिक संस्कार-सम्बन्धी और भी अनेक आयामों का संकेत मिलता है। प्रथम तो वेद की अपौरुषेयता का खण्डन कथाकार का मुख्य लक्ष्य है। इसके अतिरिक्त, वेद की सृष्टि को जो उदात्त गरिमामयी भूमि ब्राह्मण-परम्परा में मिलती है, उसको यहाँ यत्किंचित् मूल्य भी नहीं दिया गया है। कथाकार के अनुसार, आर्यवेद अहिंसामूलक है और अनार्य तथा अथर्ववेद हिंसामूलक । इन तीनों वेदों की रचना भी निकृष्ट प्रतिक्रिया-स्वरूप ही हुई है। कौतूहलवश राजा भरत के दर्शन करनेवालों की भीड़ भोजनशाला में घुस जाती थी, इसलिए उन भोजनार्थी कुतूहलियों को नियन्त्रित और अनुशासित करने के लिए परमर्षियों द्वारा आर्यवेद की सृष्टि की गई ! यह वेदविद्या एक तरह से तप, शील और शिक्षा की न्यूनाधिकता के आधार पर, भरत द्वारा तीन वर्गों में विभाजित उन कुतूहली ब्राह्मणों की आचारसंहिता थी, जिन्होंने प्राणिवध न करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। इसीलिए, उन्हें 'माहण' (मा-हन = हिंसा न करनेवाला) शब्द से संजित किया गया। प्राकृत में 'ब्राह्मण' को 'बंभण' के अतिरिक्त 'माहण' भी कहते हैं और शब्दशास्त्रज्ञ कथाकार ने 'माहण' की श्लेषमूलक निरुक्ति में अपनी शाब्दिक व्युत्पन्नता का शास्त्रीय परिचय दिया है।
अनार्यवेद तो स्त्री की अप्राप्ति से उत्पन्न काममूलक या वासनापरक प्रतिक्रिया से उद्भूत हुआ, जो नाम के अनुसार ही निश्चय ही एक जघन्यतम वेद है। इसमें भी प्रसिद्ध श्लेषगर्भ वेदमन्त्र 'अजैर्यष्टव्यम्' का पशुहिंसापरक अर्थ करनेवालों ने असंख्य प्राणियों के वध द्वारा हिंसावृत्ति को पराकाष्ठा के भी पार पहुंचा दिया है। एक प्रतिनायक को प्रतिक्रियावश नरक भेजने के उपाय का यह अद्भुत उदाहरण है।
अभिचारमन्त्रपरक अथर्ववेद की उत्पत्ति, एक अवैध सन्तान की अपने तथाकथित माता-पिता के प्रति प्रतिहिंसा-भावना से हुई, जो अनार्यवेद की परम्परा की ही एक कड़ी थी। इस प्रकार, वेदों की उत्पत्ति को हिंसा और वासना की पृष्ठभूमि पर आधृत दिखलाकर यथार्थवादी युगचेता कथाकार ने उस युग में वैदिक यज्ञ के नाम पर दम्भी और पाखण्डी ब्राह्मणों और पुरोहितों द्वारा किये जानेवाले लोमहर्षक क्रूरतम धार्मिक अनाचारों का, कथा के माध्यम से, प्रभावकारी संकेत किया है। साथ ही, 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' के समर्थक मीमांसकों पर अपनी घोर अनास्था व्यक्त की है। अवश्य ही, यह वैदिक संस्कार सामाजिक जीवन को अध:पतन की ओर ले जानेवाला है।
वैदिक स्वैराचारों के प्रति सहज प्रतिक्रियाशील कथाकार ने राजसूय और अश्वमेधयज्ञ के नाम पर आयोजित नरमेध का भी हृदयद्रावक प्रसंगोद्भावन किया है । उस समय के ब्राह्मण-पुरोहित