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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा स्वर्ग ले चलने का प्रलोभन देकर उक्त बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन करवाते थे। अश्वमेध यज्ञ में घोड़े द्वारा योनि के स्पर्शकी वैदिक प्रथा को भी कथाकार ने कुत्सित और उपहासास्पद बताया है।
दक्षिणा के लोभ में उपस्थित होकर हिंसामूलक यज्ञों और यज्ञकर्ताओं का समर्थन करनेवाले ब्राह्मणों की ओर भी कथाकार ने कुटिल भृकुटिपात किया है । वेदों और ब्राह्मणों की उत्पत्ति को भरतकालीन मानकर कथाकार ने उन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से कालबद्ध किया है। और इस प्रकार, उसने वेदों के अनादित्व को असिद्ध करके, 'ब्राह्मणोऽस्थ मुखमासीद्' जैसे वाक्यों द्वारा ब्राह्मणों की जातिगत श्रेष्ठता को घोषित करनेवाली वैदिक मान्यता का भी अवमूल्यन कर दिया है। इसके अतिरिक्त, सोमश्री को वेदज्ञा के रूप में प्रस्तुत करके 'न स्त्रीशूद्रौ वेदमधीयाताम्' जैसे संकीर्णतामूलक कर्मकाण्डीय विश्वासरूढि का भी निराकरण किया है। शूद्र के भी वेद पढ़ने और ब्राह्मणी से विवाह करके उसके लोकपूजित होने का उल्लेख कथाकार ने किया है। मगध-जनपद के अचलग्राम का धरणिजड नामक ब्राह्मण जब अपने पुत्रों को वेद पढ़ाता था, तभी ब्राह्मण की दासी कपिलिका का पुत्र कपिलक भी उसे हृदय से धारण करता था। एक दिन वेदपाठ का अधिकारी न होने का अपमान सहन न कर सकने के कारण वह रत्नपुर नगर चला गया। वहाँ अपने को ब्राह्मण बताकर उसने सात्यकि नामक वेदपाठी ब्राह्मण के शिष्यों का उपाध्यायत्व प्राप्त कर लिया। एक दिन, सात्यकि ने सन्तुष्ट होकर अपनी पुत्री सत्यभामा उसे दे दी। इसके बाद वह (कपिल) क्रम से लोकपूजित और वैभवशाली हो गया (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२०)। १. अश्वमेध यज्ञ बहुव्ययसाध्य था। इसका आयोजन चक्रवर्ती राजा ही करते थे। यह यज्ञ भारतीय प्राचीन युग
की अपार समृद्धि का भी संकेतक है। वाल्मीकिरामायण के चौदहवें सर्ग में दशरथ-कृत अश्वमेध यज्ञ का वर्णन विस्तार से दिया गया है। उस यज्ञ में रानी कौशल्या ने तीन कृपाणों से राजा दशरथ के उत्तम घोड़े का वध किया था और उस मरे हुए घोड़े के लिंग को अपनी योनि में डालकर धर्मकामना से वह एक रात रही थी। श्लोक इस प्रकार है :
पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा । अश्वरत्नोत्तमं तत्र राज्ञो दशरथस्य ह (च) ॥३२॥ कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समन्ततः ।। कृपाणोविंशशासेनं त्रिभिः परमया मुदा ॥३३॥ पतत्रिणा तदा साधं सुस्थितेन च चेतसा । अवसद्रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया ॥३४॥ होताध्वर्युस्तथोद्गाता हयेन (हस्तेन) समयोजयन् । 'महिष्या परिवृत्त्याथ वावातामपरां तथा ॥३५॥ पतत्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रिय ।
ऋत्विक्परमसम्पन्नः श्रपयामास शास्त्रतः ॥३६ ॥ इस प्रसंग में चौतीसवें श्लोक के कर्थ को स्पष्ट करते हुए ‘गोविन्दराजीयरामायमभूषण' टीका के कर्ता ने लिखा है : “तदा विशसनोत्तरकाले कौसल्या धर्मकाम्यया धर्मसिद्धीच्छया. . . सुस्थितेन सुस्थिरेण चेतसाउपलक्षिता सती शवस्पर्शकत्सारहिता सतीत्यर्थः पतत्रिणा अश्वेन सार्धमेकां रजनीमवसत ।" इसी क्रम में, अश्वमेध यज्ञ की इस शास्त्रीय विधि के सामान्यीकरण के क्रम में टीकाकार ने कहा है : “यत्र सूत्रं 'अम्बे अम्बाल्यम्बिके' इति जपन्ती महिष्यश्वमुपसङ्गम्य 'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे' इत्यभिमन्त्र्य 'उत्सक्थ्योर्गुदं धेहि' इति प्रजनने प्रजननं सन्निधायोपविशति....।" -विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : वाल्मीकिरामायण, प्रकाशक एवं मुद्रक : आइ. एस्. देसाई, गुजराती प्रिण्टिंग प्रेस, सैसून बिल्डिंग्स, फोर्ट बम्बई, संस्करण, सन् १९१२ ई.।