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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा यज्ञकर्ताओं ने सोमपान किया। चूँकि यहाँ सोमवल्ली का छेदन (दृति = दारण ) किया गया था, इसलिए लोग उस स्थान को 'दृतिप्रयाग' कहने लगे। महाकालदेव का यह चरित परम्परागत रूप से यहाँ प्रचलित हो गया। और, शाण्डिल्य के रूप में इसी महाकालदेव द्वारा प्रोक्त पशुवध या प्राणिवध के मन्त्रों के अनुसार जो ग्रन्थ-रचना हुई, वही 'अनार्यवेद' कहलाया। . इसी प्रकार, संघदासगणी ने अथर्ववेद की भी बड़ी मनोरंजक उत्पत्ति-कथा (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५१) उपन्यस्त की है। परिव्राजक याज्ञवल्क्य के अवैध पुत्रं पिप्पलाद ने हिंसामूलक इस वेद की रचना की। इसने अपनी अज्ञात परिव्राजिका माता सुलसा की शिष्या नन्दा के षोष्यत्व में पहले अक्षर जोड़ना सीखा था, बाद में अंग-उपांग सहित वेदों का अध्ययन किया। एक दिन उद्यान में, बाल्यभाव के कारण लड़ते-झगड़ते हुए पिप्पलाद से नन्दा ने कहा : “दूसरे से पैदा हुए तुम मेरे लिए बाधक बन गये हो।" यह सुनकर पिप्पलाद ने नन्दा से पूछा : “माँ, मैं किसका पुत्र हूँ ?” “मेरे पुत्र हो।” नन्दा ने कहा। पिप्पलाद ने सचाई जानने के लिए जब पुनः आग्रह किया, तब नन्दा ने उसकी उत्पत्ति की सत्यकथा कह दी। फलतः, वह अपने माता-पिता के प्रति द्वेषभाव से भर उठा और उसी द्विष्ट मन:स्थिति में उसने अथर्ववेद की रचना की, जिसमें मातृमेध, पितृमेध और अभिचार-मन्त्रों का विनियोग किया। फलत:, वह वेद अतिशय लोकप्रिय और समृद्ध हो गया। अपनी अभिनव बुद्धि से पिता को भी पराजित करनेवाला पिप्पलाद ने अथर्ववेद की न केवल रचना की, अपितु अपने पिता और माता की जघन्य हत्या करके पितृमेध और मातृमेध को प्रयोगिक कृतार्थता भी प्रदान की। पिप्पलाद का वर्दली नामक एक शिष्य भी था, जो अथर्ववेद का ज्ञाता होकर उसे ब्राह्मणों को पढ़ाता था।
इस अथर्ववेद की कथा का प्रवक्ता कोई देव था। उससे जब विद्याधरपुत्रों ने प्रश्न किया था, तब उसने अथर्ववेद की उत्पत्ति की मूलकथा सुनाई थी। कथा का विवरण (तत्रैव, पृ. १५१) इस प्रकार है : जब चारुदत्त सेठ और अमितगति विद्याधर परस्पर आलाप-संलाप कर रहे थे, तभी प्रशस्त रूपवाला, रुचिर आभरणों से भूषित निर्मल वस्त्रधारी तेजस्वी देव वहाँ आया। वह चारुदत्त को देखकर हर्षित हुआ और 'परमगुरु के लिए नमस्कार' कहते हुए उसने उसकी वन्दना की। बाद में उसने अमितगति (विद्याधर साधु) की वन्दना की। तब वहाँ उपस्थित विद्याधर साधु के पुत्रों ने देव से पूछा : “पहले साधु की वन्दना करनी चाहिए या श्रावक की? इसमें कौन-सा क्रम उचित है ?" देव ने कहा : “पहले साधु की वन्दना करनी चाहिए, तब श्रावक की। यही क्रम है। किन्तु, भक्ति के प्रति प्रगाढ अनुरक्ति के कारण मैं क्रम के निर्वाह में चूक गया। मैंने इन्हीं चारुस्वामी की कृपा से देवशरीर पाया है और ऋद्धि की भी उपलब्धि की है।" इस सम्बन्ध में विद्याधर साधु के पुत्रों द्वारा और आगे जिज्ञासा करने पर देव ने बताया : "बकरे के भव में चारुस्वामी ने ही मुझे धर्म में नियोजित किया था। फलत:, मुझे जातिस्मरण हो आया, जिससे मुझे पिछले छह जन्मों की घटनाएँ प्रत्यक्ष हो आईं। पहले मैं अथर्ववेदोक्त मन्त्रों के प्रयोग के क्रम में पाँच बार होमाग्नि में जलकर मरा । छठी बार मुझे व्यापारियों ने (ये व्यापारी सुवर्णद्वीप के यात्री थे, जिनमें चारुस्वामी भी, दैव-दुर्विपाक से सम्मिलित था) मार डाला।” __इसी क्रम में जब विद्याधरपुत्रों ने देव से पूछा कि अथर्ववेद किस प्रकार उत्पन्न हुआ और किसने किया, तब देव ने यथापूर्वोक्त अनार्यवेद की परम्परा में ही अथर्ववेद की उत्पत्ति की कथा