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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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साथ आ मिला। उसने पर्वतक को विद्या सिखाना प्रारम्भ किया और पशुवध के मन्त्रों की रचना की। शाण्डिल्य और पर्वतक के मन्त्रों का प्रभाव लोगों पर पूरी तरह पड़ गया। इसके बाद महाकालदेव ने राजा सगर के देश साकेत में भयंकर महामारी फैला दी। राजा सगर को सूचना मिली कि चेदिदेश में शान्ति करनेवाले ब्राह्मण रहते हैं। राजा के प्रार्थना करने पर शाण्डिल्य और पर्वतक साकेत पहुँचे। उन्होंने वहाँ पशुवध के द्वारा शान्तिकर्म किया। इसी क्रम में आभियोगिक देवों ने सगर को अपने रूप दिखाते हुए कहा कि पहले हम पशु थे। पर्वतकस्वामी ने मन्त्रों द्वारा हमारा वध किया और हम मरकर देव हो गये। सगर ने देव-सान्निध्य प्राप्त करके उनसे कहा : “मैं जैसे सुगति प्राप्त करूँ, आप वैसी ही कृपा करें।"
देवों ने सगर से कहा : "राज्यशासन के क्रम में आपने बहुत पाप किया है, अत: मनुष्यों के स्वर्ग जाने के उपाय सुनें।" उसके बाद उन्होंने अश्वमेध, राजसूय आदि यज्ञों की विधि सुनाई
और स्वर्ग-गमन का फल भी कहा। राजा सगर और उसके सामन्तों तथा पुरोहित विश्वभूति को उक्त यज्ञों पर श्रद्धा हो गई। राजा सगर और उसकी रानी सुलसा अश्वमेध यज्ञ में दीक्षित हुए
और उपाध्याय विश्वभूति ने उनसे बहुत सारे जीवों का वध करवाया और अन्त में रानी सुलसा से कहा : “यज्ञ के घोड़े से योनि का स्पर्श कराओ। तभी तुम पापमुक्त होकर स्वर्गगामिनी बनोगी।” इसके बाद महाकालदेव ने रानी को पकड़ लिया और स्वयंवर में उसके द्वारा त्याग . किये गये मधुपिंगल का स्मरण दिलाया। मृदुल स्वभाववाली रानी सुलसा तीव्र वेदना से उत्पीडित होकर मर गई और नागराज धरण की अग्रमहिषी के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया।
इसके बाद राजा सगर को राजसूय यज्ञ में दीक्षित किया गया। हिंसाविरोधी नारद के कथनानुसार राजपुत्र दिवाकरदेव गंगा-यमुना के संगम-क्षेत्र की गंगा में यज्ञ-सामग्री फेंकने लगा। शाण्डिल्य से राजा सगर ने पूछा : “यज्ञसामग्री का अपहरण कौन कर रहा है ?" शाण्डिल्य ने कहा : “देवता की प्रसन्नता का सहन न कर सकनेवाले राक्षस यज्ञ-सामग्री का अपहरण कर रहे हैं।" तब, यज्ञ की रक्षा के निमित्त ऋषभस्वामी की प्रतिमा स्थापित की गई। अन्त में, यथारूप आयोजित यज्ञ में प्राणियों का विपुल वध देखकर दिवाकरदेव और नारद दोनों तटस्थ हो गये।
तदनन्तर, शाण्डिल्य ने राजा सगर से विभिन्न प्रकार के असंख्य प्राणियों का वध करवाया और मृत प्राणियों के शरीर को कीचड़-भरी बावली में डलवा दिया। जब मृत प्राणी-समुदाय के शरीर सड़कर मिट्टी बन गये, तब उनकी हड्डियों को बीनकर निकलवा दिया और उससे ईंटें बनवाकर पुरुषप्रमाण ऊँची यज्ञवेदी तैयार करवाई। प्रयाग और प्रतिष्ठान (झूसी) के बीच गंगातट पर बनी इस यज्ञवेदी में बकरों, घोड़ों और मनुष्यों को काट-काटकर उनचास दिनों तक हवन किया गया। प्रतिदिन पाँच-पाँच प्राणियों का अधिक वध किया गया। फिर, शाण्डिल्य के दूसरे आदेश के अनुसार, प्रत्येक चार शाम पर पाँच-पाँच और अधिक जीवों की हत्या की गई। दक्षिणा के लोभ में आये बहुत सारे ब्राह्मण पर्वतक और शाण्डिल्य की प्रशंसा करने लगे।
अन्त में, शाण्डिल्य और पर्वतक ने मिलकर राजा सगर के पुरोहित विश्वभूति को भी उस यज्ञाग्नि में हवन कर दिया और राजा सगर पर प्राणघातक विद्याओं का प्रयोग करके उसे मार डाला। जहाँ यह यज्ञ आयोजित हुआ था, वहाँ सोमलता की प्रचुरता थी, उससे रस निकालकर