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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा प्रकार, आर्यवेद और ब्राह्मणों की उत्पत्ति प्रथम चक्रवर्ती भरत के समय हुई। यह श्रावक-प्रज्ञप्तिमूलक वेद कालक्रम से संक्षिप्त हो गया और थोड़े अंशों में लोक-प्रचलित रहा। __उपाध्याय ब्रह्मदत्त ने अपने गौतमगोत्रीय शिष्य स्कन्दिल (चरितनायक वसुदेव) को आर्यवेद की उत्पत्ति बताकर अनार्यवेद की भी उत्पत्ति-कथा (सोमश्रीलम्भ: पृ. १८५) कही। यह कथा भी कई अन्त:कथाओं से संवलित है तथा विषयवस्तु की दृष्टि से पर्याप्त रोचक और चमत्कारी है। अनार्यवेद आर्यवेद के ठीक विपरीत हिंसामूलक वेद था। चेदिदेश की शुक्तिमती नगरी में क्षीरकदम्ब नामक उपाध्याय था। उसके पुत्र का नाम पर्वतंक था। वहीं नारद नाम का ब्राह्मण
और वसु नाम का राजपुत्र रहता था। ये सभी उपाध्याय के शिष्यों के साथ आर्यवेद पढ़ते थे। एक समय, जबकि देश की अवस्था बहुत सुखमय और अनुकूल थी, क्षीरकदम्ब के घर दो साधु भिक्षा के लिए आये। उनमें एक अतिशय ज्ञानी था। उनमे दूसरे साधु से कहा : “ये जो तीन आदमी (पर्वतक, नारद और वसु) हैं, उनमें एक तो राजा होगा, दूसरा नरकगामी होगा और तीसरा देवलोक का अधिकारी होगा।" क्षीरकदम्ब ने इस बात को प्रच्छन्न रूप से सुन लिया। उसके मन में चिन्ता हुई : “वसु तो राजा होगा, लेकिन पर्वतक और नारद, इन दोनों में, पता नहीं कौन नारकी होगा?” इसके बाद उसने एक कृत्रिम बकरे का निर्माण किया और कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि की रात्रि में नारद को आदेश दिया कि वह इसे जनशून्य स्थान में ले जाकर इसका वध कर दे। किन्तु, बकरे को अवध्य मानकर तथा देवदृष्टि, वनस्पतियों की सचेतनता एवं आत्मदृष्टि के आधार पर कहीं भी जनशून्यता न देखकर नारद ने गुरु के आदेश-पालन में अपनी असमर्थता दिखलाई। उपाध्याय उसपर बहुत प्रसन्न हुए।
इसके बाद, दूसरी रात को, उपाध्याय ने अपने पुत्र पर्वतक को पूर्ववत् आदेश दिया। पर्वतक ने गली को सूना जानकर, वहाँ शस्त्र से उस बकरे का वध कर दिया। इसपर उपाध्याय ने उसकी अदूरदर्शिता पर उसे बहुत प्रताड़ना दी और उसके नरकगामी होने की सम्भावना भी व्यक्त की। नारद उपाध्याय क्षीरकदम्ब की पूजा करके अपने स्थान को चला गया और उपाध्याय, माता-सहित पर्वतक को राजा वसु के जिम्मे सौंपकर वार्धक्यवश परलोकगामी हो गया। उपाध्याय क्षीरकदम्ब की मृत्यु के बाद पर्वतक ने अपने पिता की गद्दी सँभाली। नारद अहिंसावादी था, इसलिए वह 'अजैर्यष्टव्यम्' (प्रा. 'अजेहिं जतियव्वं) का अर्थ मानता था धान्य (व्रीहि-यव) से यज्ञ करना चाहिए। किन्तु, पर्वतक हिंसावादी था, इसलिए वह अज का सीधा अभिधार्थ बकरा मानता था। इसलिए, नारद और पर्वतक अपने अनुयायियों-सहित दो पक्षों में बँट गये थे। पर्वतक के पक्ष-समर्थन में, राजा वसु ने भी उपाध्याय क्षीरकदम्ब का हवाला देकर, 'अज' का अर्थ बकरा बताया। राजा वसु उपरिचर था। उसका सिंहासन जमीन से ऊपर ही रहता था। कथाकार ने इस बात का रहस्यभेदन किया है। वस्तुस्थिति यह थी कि राजा वसु पारदर्शी स्फटिक पत्थर पर प्रतिष्ठित सिंहासन पर बैठता था। पत्थर को आँख से न देख सकने के कारण उसकी प्रजा समझती थी की राजा निराधार अधर में, सिंहासन पर बैठा है। जो हो, गुरु का नाम लेकर झूठ बोलने के कारण तत्क्षण सत्य के पक्षधर देवों से आहत सिंहासन जमीन पर आ पड़ा और वसु का विनाश हो गया। राजा वसु के आठ पुत्रों को भी क्रमश: देवों ने विनष्ट कर दिया।
इसी समय मधुपिंगल के वर्तमान भव का जीव महाकालदेव अपने प्रतिनायक राजा सगर से पूर्वभव का प्रतिशोध लेने की भावना से शाण्डिल्यस्वामी ब्राह्मण का रूप धरकर, पर्वतक के