SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३२३ कहा : “सौम्य ! सुनिए। ग्रामनायक देवदेव की रूपवती, पण्डिता और सुलक्षणा पुत्री सोमश्री के विषय में ज्योतिषियों ने कहा है कि वह श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी बनेगी। मन्दिर में प्रतिष्ठित केवलज्ञानी बुध और विबुध साधुओं की प्रतिमाओं के समक्ष जो श्रेष्ठ पुरुष वेद के प्रश्नों का उत्तर देगा, उसी को वह कन्या दी जायगी। इसलिए, सोमश्री के रूप और ज्ञान से विस्मित ब्राह्मणपुत्र वेदाभ्यास करते हैं। मन्दिर से बाहर-भीतर होने का यही कारण है।" उसके बाद, उक्त ब्राह्मणपुत्र से पूछकर वसुदेव उस गाँव के प्रधान उपाध्याय ब्रह्मदत्त के घर आये। उन्होंने ब्राह्मण उपाध्याय से वेदार्थ पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। ब्रह्मदत्त आर्य और अनार्य दोनों वेदों को जानता था। वसुदेव ने दोनों वेदों के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। तब, ब्रह्मदत्त ने पहले आर्यवेद की उत्पत्ति-कथा (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८३) इस प्रकार बतलाई : श्रावकों के साथ अनेक कुतूहली लोग भी राजा भरत के दरबार में जाते और राजा के दर्शन को देवदर्शन के समान मानते और आशीर्वाद देते । भोजनशाला के द्वार पर नियुक्त पुरुष ने श्रावकों के साथ अन्य कुतूहलियों की भीड़ देखकर राजा के निकट जाकर निवेदन किया : “महाराज ! श्रावकों के बहाने अनेक कुतूहली आपको देखने आते हैं और भोजनशाला में घुस जाते हैं। अब आपकी जैसी आज्ञा हो।” भरत ने सोच-विचारकर कहा : “ठीक है, श्रावकों और कुतूहलियों को अलग-अलग किया जायमा । कुतूहली लोग माहण (ब्राह्मण) हैं। इन्होंने प्राणिवध न करने की प्रतिज्ञा कर रखी है। ‘मा हन जीवान् इति' ('मा हणह जीवे त्ति तओं माहण' त्ति वुच्चंति) इस निरुक्ति के आधार पर ही वे 'माहण' कहलाते हैं।” राजा भरत ने सबको (कुतूहलियों को) बुलवाया और पूछा : “अहिंसा-शील से युक्त जितने लोग हैं, सभी अपने-अपने को प्रस्तुत करें।” प्रत्येक ने अपने तप, शील और गुणव्रत के विषय में कहा। उनमें जितने पंचाणुव्रती थे, उनके लिए राजा ने काकिणी-रल (बीस कौड़ी मूल्य का एक सिक्का) से एक तिरछी (वैकक्षिक) रेखा बना दी। और, जो तीन गुणव्रत और अणुव्रत धारण करनेवाले थे, उनके लिए दो रेखाएँ खींचीं। फ़िर, जो अणुव्रत और गुणव्रत के साथ ही शिक्षाव्रत धारण करते थे, उनके लिए तीन रेखाएँ डालीं। इस प्रकार से रेखांकित सभी कुतूहली, 'माहण' (ब्राह्मण) के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनके आचार और धर्म को एक लाख श्लोकप्रमाण में ग्रथित किया गया। उसके बाद वे ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं (श्रावकों के विशिष्ट नियम) के विधान से युक्त; शीलव्रत-नियमों के विचारों से विभूषित; मरणविधि, सुगति-गमन एवं शुक्लध्यान में प्रत्यागमन आदि बोधिलाभ के फल से युक्त तथा निर्वाण-प्राप्ति के उपाय की देशना के सार से समन्वित परमर्षि द्वारा उपदिष्ट आर्यवेद पढ़ने लगे। ज्ञातव्य है कि श्रमण-परम्परा के वेद का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व था। ऋषभस्वामी के निर्वाण के बाद भरत ने तीर्थंकर की निर्वाणभूमि पर स्तूप बनवाये और उत्सव कराया। ब्राह्मणों ने भी जिनभक्तिवश तथा चक्रवर्ती भरत की अनुमति से उत्सव किया। जिनेश्वर तथा चक्रवर्ती राजा भरत के प्रति श्रद्धावश राजे-महाराजे वहाँ (स्तूप के निकट) बराबर एकत्र होने लगे। आदित्ययश आदि भरत के वंशजों ने ब्राह्मणों को सुवर्णसूत्र प्रदान किये। इस १. मूल ग्रन्थ में, कथाकार ने, वेदोच्चारण में स्खलन होने पर, मन्दिर से बाहर निकल कर फिर भीतर जाने की स्थिति के किसी स्पष्ट कारण का उल्लेख नहीं किया है. फिर भी यह अनमान सहज ही किया जा सकता है कि वेदाभ्यासी ब्राह्मण बालकों के निमित्त, वेदपाठ में स्खलन होने पर, कुछ देर के लिए मन्दिर से बाहर निकल जाने का नियम निर्धारित होगा। ले.
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy