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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
नीलांजना । नीलकुमार के पुत्र का नाम था नीलकण्ठ और फिर रानी नीलांजना से उत्पन्न पुत्री का नाम नीलया रखा गया था। इसी प्रकार, पवनवेग, मानसवेग, वेगवती तथा सहस्रग्रीव, पंचशतग्रीव, शतग्रीव, पंचाशद्ग्रीव, विंशतिग्रीव, दशग्रीव आदि नाम इस सम्बन्ध में उल्लेख्य हैं ।
उस युग में जन्मोत्सव भी धूमधाम से मनाया जाता था। इस सन्दर्भ में तीर्थंकर ऋषभस्वामी की जन्मोत्सव - प्रक्रिया (नीलयशालम्भ : पृ. १६१ ) अपने-आपमें अनुपम है। जन्म के बारह दिनों के बाद शिशु का नामकर्म-संस्कार किया जाता था। अयोध्या (साकेत) के, इक्ष्वाकु वंश में प्रसूत राजा जितशत्रु और सुमित्र ने अपनी रानियों, क्रमश: विजया और वैजयन्ती से उत्पन्न पुत्रों - अजित और सगर का नामकर्म-संस्कार उनके जन्म के बारह दिन बीतने के बाद सम्पन्न किया था : "कालेण य ताओ पसूयाओ । जियसत्तुणा निव्वत्ते बारसाहस्स पुत्तस्स नामं अजिओ त्ति सुमित्तेणं सगरो त्ति ( प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३००)।" 'बारसाहस्स' शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि उस युग में शिशु जन्म के बाद 'बरही' संस्कार का विधान भी लोक- प्रचलित था। आज भी ‘बरही’-‘छट्ठी' के विधान की अक्षुण्ण परम्परा समाज में प्रथित है। शिशु जन्म के छठे दिन 'छट्ठी' और बारहवें दिन 'बरही' की विधि ससमारोह सम्पन्न की जाती है ।
वेदाध्ययन और यज्ञ
'वसुदेवाहण्डी' में विभिन्न भारतीय संस्कारों का विपुल वर्णन हुआ है। यद्यपि संघदासगणी ने अन्नप्राशन, उपनयन, चूडाकरण आदि कतिपय प्रमुख संस्कारों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, किन्तु वसुदेव की अंगशोभा के वर्णन के क्रम में 'गले में शोभित यज्ञोपवीत से पवित्र ' ('गीवासमुल्लसंतजन्नोइयपवित्तो; सोमश्रीलम्भ: पृ. १९४) जैसे वाक्य प्रयोग से उस युग में उपनयन-संस्कार के प्रचलित रहने का संकेत अवश्य मिल जाता है। द्विजातियों द्वारा वेदाभ्यास की तो भरपूर चर्चा की गई है। श्रमण परम्परा के युग में भी वेदों या शास्त्रों का अध्ययन ‘कुमारवास' में रहकर किया जाता था। स्वयं ऋषभस्वामी बीस लाख पूर्व तक कुमारघास में रहे थे ("वीस सयसहस्साणि पुव्वाणं कुमारवासमज्झाऽऽवसिऊणं; सोमश्रीलम्भ : पृ. १८३) । ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में बुधस्वामी ने 'कुमारवास' के लिए 'कुमारवटका' शब्द का प्रयोग किया है (६.१५) । यह ‘कुमारवास' या 'कुमारवटका' आधुनिक 'छात्रावास' का ही पूर्वकल्प था । वसुदेव ने भी वेदश्यामपुर नगर के गिरिकूट ग्राम के मन्दिर में द्विजातियों को वेदोभ्यास करते हुए देखा था : “पस्सामि दियादओ तेसु थाणेसु समागए वेदपरिच्चयं कुणमाणे (तत्रैव : पृ. १८२) । ” यहाँ प्रस्तुत विषयवस्तु से सम्बद्ध रोचक कथा ध्यातव्य है । वसुदेव जब वापी, पुष्करिणी आदि से सुशोभित तथा वनखण्ड से मण्डित गिरिकूट गाँव के निकट पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने ब्राह्मणों को वेदाभ्यास करते हुए देखा। वह एक पुष्पकरिणी पर गये । वहा उन्होंने स्नान किया और अपने आभूषणों को कपड़े के छोर में बाँधकर गिरिकूट गाँव में प्रवेश किया। वहाँ एक श्रेष्ठ मन्दिर देख उसमें जा घुसे।
उस मन्दिर में वेदाभ्यास में निरत ब्राह्मण बालक वेद के पदों का उच्चारण करते समय भूल कर बैठते थे । भूल करने के बाद वे मन्दिर से बाहर निकल आते थे, फिर भीतर जाते थे । भीतर आये हुए एक ब्राह्मण बालक से वसुदेव ने पूछा: "इस मन्दिर में ब्राह्मण के बालक वेदाभ्यास क्यों करते हैं? स्खलन (भूल) होने पर बार-बार बाहर क्यों निकल जाते हैं ?” ब्राह्मण बालक ने