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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३२१ नवजात शिशु का नाम 'ऋषभ' (ऋषभस्वामी) रखा गया था। फिर उनका जातकर्म-संस्कार तो स्वयं दिक्कुमारियों ने किया था। कथा (नीलयशालम्भ : पृ. १६०) है कि ऋषभस्वामी के जन्म होने के बाद देवविमान के मध्य में रहने वाली रुचका, रुचकसहा, सुरूपा और रुचकावती, ये चार दिक्कुमारियाँ सपरिवार श्रेष्ठ विमान से आईं और जिन-जननी की वन्दना करके उन्होंने अपने आगमन का कारण बताया। फिर, उन्होंने तीर्थंकर का विधिवत् जातकर्म संस्कार किया और नवजात के नाभिनाल को, चार अंगुल छोड़कर काट डाला, फिर उस कटी हुई नाभि को धरती में गड्डा खोदकर गाड़ दिया, फिर उस गड्ढे को रत्न और दूर्वा से भरकर वहाँ पर वेदी (पीठिका) बना दी।
इसके बाद उन दिक्कुमारियों ने अपनी वैक्रियिक शक्ति से दक्षिण, पूर्व और उत्तर इन तीन दिशाओं में मरकतमणि की भाँति श्यामल आभूषणों से मण्डित कदलीघर का निर्माण किया और फिर कदलीघर के मध्यभाग में कल्पवृक्ष की, स्वर्णजाल से अलंकृत चतुःशाला बनाई। उसमें पुत्रसहित जिनमाता को मणिमय सिंहासन पर बैठाकर क्रम से तेल-उबटन लगाया, फिर दक्षिण-पूर्व दिशा में ले जाकर उन्हें त्रिविध (शीत, उष्ण और द्रव्यमिश्रित) जल से स्नान कराया और फिर उत्तरी चतुश्शाला में गोशीर्षचन्दन और अरणी की लकड़ी से आविर्भूत अग्नि में हवन-कार्य सम्पन्न । किया। इस प्रकार, दिक्कुमारियाँ रक्षाकार्य पूरा करने के बाद माता-पुत्र को जन्म-भवन में लिवा लाईं और मंगल-गीत गाती हुई खड़ी रहीं।
___ इससे स्पष्ट है कि उस युग में प्रत्येक मंगलकार्य के अवसर पर हवन-कार्य का विधान प्रचलित था और उस कार्य के लिए गोशीर्षचन्दन और अरणी की लकड़ी को परस्पर रगड़कर अग्नि उत्पन्न की जाती थी। वैदिक यज्ञविधि में भी हवन के लिए अरणी-काष्ठों के मन्थन से अग्नि उत्पन्न करने की शास्त्रीय प्रथा प्रचलित थी। ऋग्वेद में इस सन्दर्भ से सम्बद्ध कई ऋचाएँ उपलब्ध होती हैं।
शिशु के नाम रखने की पद्धति उसके गर्भ या जन्मकाल या उसकी प्राप्ति के हेतुभूत लक्षणो से प्रभावित होती थी। जैसे : गन्धर्व द्वारा प्राप्त होने के कारण चारुदत्त ने अपनी पोष्यपुत्री क नाम 'गन्धर्वदत्ता' रखा था। स्वयं चारुदत्त का नाम भी चारुस्वामी से प्राप्त होने के कारण से सम्बद्ध था। अथर्ववेद का रचयिता 'पिप्पलाद' का नाम भी सकारण था। शिशु-अवस्था में उसके खुले मुँह में पीपल का फल टपक पड़ा था, जिसे वह खा गया था। पीपल खाने से ही उसक नाम 'पिप्पलाद' रखा गया। नवजात अवस्था में वल्कल के बीच रखे जाने के कारण शिशु क नाम 'वल्कलचीरी' रख दिया गया था ('वक्कलेसु ठविओ त्ति वक्कलचीरी'; कथोत्पत्ति, पृ. १७) इसी प्रकार, प्रत्येक परिवार में भी अपनी सन्तानों के नाम रखने में पितृपरम्परागत विशेषणात्मव शब्दों की आवृत्ति की जाती थी। जैसे : नीलधर विद्याधर की सन्तानों के नाम थे नीलकुमार और १.(क) अस्तीदमधिमन्थनमस्ति प्रजन
एतां विश्पत्नीमाभराग्नि मन्थाम पूर्वथा ।। (३.२९.१) ऊपर मथने की वस्तु विद्यमान है और नीचे जो प्रकट होना है, उन दोनों से हम प्रजाजनों का पाल करनेवाली पूर्वजकल्प अग्नि का मन्थन करें और आप सभी उसे ग्रहण करें। (ख) अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुधितो गर्भिणीषु ।
दिवोदिव ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ।। (३.२९.२) हविष्मान् (समृद्धि-सम्पन्न), भाग्यशाली और जागरूक मनुष्यों द्वारा ऊपर और नीचे की अरणियों में स्थित, जै गर्भवती स्त्रियों में गर्भ रहता है.प्रतिदिन खोजने योग्य अग्नि को उत्तम प्रकार से धारण किया जाना चाहिए