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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अमृत का आगार कहा है। पैशाची भाषा में निबद्ध 'बृहत्कथा' की रचना गुणाय ने आन्धराजा हाल सातवाहनके समय, ई. पू. प्रथमशती में की थी। इसकी चर्चा ई. पू. प्रथमशती के कवि कालिदासने भी उदयनकथा (मेघ १.३०) के नाम से की है। साथ ही, 'हित्वा हालामभिमतरसाम्' (१.४९) के द्वारा उन्होंने हाल सातवाहन की राजपरम्परा की ओर भी संकेत किया है। आन्ध्रसातवाहन-युग में जल-स्थल-मार्गों पर अनेक सार्थवाह, पोताधिपति एवं सांयात्रिक व्यापारी अहर्निश यात्रा करते थे। लम्बी यात्रा के क्रम में मनोविनोद के लिए अनेक कहानियों की रचना अस्वाभाविक नहीं थी, जिनमें उन यात्रियों के देश-देशान्तर-भ्रमण से उत्पन्न अनुभवों का सार संकलित किया जाता था। सम्पूर्ण भारत के स्थल-भाग पर जंगलों, पहाड़ों, नगरों और गाँवों में उनके शकट दौड़तेरेंगते रहते थे। उसी प्रकार, जल-भाग पर उनके प्रवहण (जहाज) तीव्र गति से छूटते थे। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा है कि सातवाहन-नरेशों की मुद्राओं पर अंकित जलयानों के चित्र उस काल के सामुद्रिक व्यापार और द्वीपान्तर-सन्निवेश की सूचना देते हैं। उन्हीं के प्रयलों से बृहत्तर भारत का वह रूप सम्पन्न हो पाया, जिसे 'मत्स्यपुराण' के लेखक ने बारह द्वीपों और ग्यारह पत्तनों से निर्मित 'नारायण-महार्णव' कहकर प्रणाम किया है : “द्वादशार्कमयो द्वीपो रुदैकादशपत्तनः।” (मत्स्यपुराण, २४८ . २२-२६)
विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न कथाकार गुणाय ने उन्हीं उद्यमी सार्थों और नौयात्रियों के रोचक रंजक अनुभवों को 'बृहत्कथा' के रूप में उपन्यस्त किया। 'बृहत्कथा' की उत्तरकालीन वाचनाओं 'वसुदेवहिण्डी', 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'कथासरित्सागर' और 'बृहत्कथामंजरी' से यह सूचना मिलती है कि गुणाढ्य के विस्तृत भौगोलिक क्षितिज में पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों के आर-पार के भूखण्डों की अनेक मनोरंजक कथाएँ सम्मिलित थीं। इसी सन्दर्भ में डॉ. अग्रवाल ने यह निष्कर्ष उपस्थित किया है कि 'बृहत्कथा' के रूप में गुणात्य ने जो साहित्यिक सत्र विक्रमीय प्रथम शती के लगभग आरम्भ किया था, वह प्राचीन व मय का सहस्रसंवत्सरीय सत्र बन गया, जिसमें संस्कृत-प्राकृत के कई प्रतिभाशाली मनीषी रचयिताओं ने भाग लिया। संघदासगणिवाचक की 'वसुदेवहिण्डी' 'बृहत्कथा' के विकास की पहली कड़ी है और सोमदेव का ‘कथासरित्सागर' अन्तिम कड़ी। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', सोमदेव के 'कथासरित्सागर', क्षेमेन्द्र की 'बृहत्कथामंजरी', धर्मसेनगणिमहत्तर के 'मज्झिमखण्ड' तथा संस्कृतप्राकृत-अपभ्रंश में लिखित अन्यान्य जैनकथा-ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस निष्कर्ष की स्थापना की है कि 'वसुदेवहिण्डी' गुणाढ्य की अनुपलब्ध सर्वोत्तम कृति 'बृहत्कथा' का प्रामाणिक जैन रूपान्तर है, जिसकी चर्चा उन्होंने पूर्वोक्त 'वसुदेवहिण्डी' के अँगरेजी-संस्करण । में विस्तार से की है।
१.नानाकथामृतमयस्य बृहत्कथायाः सारस्य सज्जनमनोम्बुधिपूर्णचन्द्रः । सोमेन विप्रवरभूरिगुणाभिराम मात्मजेन विहितः खलु सङ्ग्रहोऽयम् ॥
(कथासरित्सागर की अन्तिम प्रशस्ति) २.विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'संस्कृत-सुकवि-समीक्षा' : आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ.८६ तथा 'मेघदूतः .
एक अनुचिन्तन' : डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव, मुखबन्ध, पृ.१८ ३. समश्लोकी हिन्दी-अनुवाद-सहित 'कथासरित्सागर (प्रथम खण्ड) की भूमिका, प्र. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद,
पटना-४,पृ.५