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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३१५ महामहिमं करिस्सामि । चउत्थभत्तेण य तं नित्थरइ पेच्छं। ता य सूईओ विससंजुत्ताओ देवयाए अवहियाओ (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९३)।"
संघदासगणी ने सूचना दी है कि उस युग में भी जूठन उठानेवाली दासियाँ रहती थीं। इलावर्द्धन नगर में एक सार्थवाह ने वसुदेव को भोजन के लिए अपने घर पर आमन्त्रित किया। भोजन करके, हाथ-मुँह धोने के बाद वसुदेव ने मुखशुद्धि के लिए सुगन्धफल ग्रहण किया। उसके बाद वह आसन से उठे। शेष अन्न को दासियों ने हटा दिया। “सेसमवणीयमण्णं परिचारिगाहिं (रक्तवतीलम्भ : पृ. २१९)।”
__ तत्कालीन समाज के लोग भी अपना काम निकालने के लिए सम्बद्ध व्यक्ति को धन का प्रलोभन देते थे, जो आजकल 'घूस' ('उत्कोच) के नाम से प्रचलित है। संघदासगणी ने लिखा है कि सुभानु के विवाह के लिए सज्जित उद्यान को प्रद्युम्न ने विद्याबल से ध्वस्त कर दिया था। इसी कथा को पल्लवित करते हुए कथाकार ने लिखा है कि प्रद्युम्न ने द्वारवती के बाहर एक वनखण्ड में रक्षापुरुषों को वानर उत्पन्न करके दिखलाया और उनसे कहा : “यह वानर भूखा है, इसलिए इसे इस उद्यान में यथाभिलषित फूल-फल खाने को छोड़ दिया जाय।” रक्षकों ने प्रद्युम्न का कहना न मानते हुए कहा : “यहाँ विवाह का उत्सव होनेवाला है, इसलिए यहाँ कोई नहीं रह सकता।” तब प्रद्युम्न ने उन्हें एक सुवर्णखण्ड दिया। सुवर्णखण्ड के प्रलोभन में पड़कर रक्षकों ने वानर को उद्यान में घुसने की छूट दे दी। वानर ने क्षणभर में वनखण्ड को पुष्पफल-विहीन कर दिया (पीठिका : पृ. ९३)।
प्रद्युम्न के पितामह और 'वसुदेवहिण्डी' के चरितनायक स्वयं वसुदेव भी आभूषण का प्रलोभन देकर औरतों से काम निकालने में बड़े दक्ष थे। वसुदेव के ज्येष्ठ भ्राता ने जब उनकी उद्यान-यात्रा पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बराबर घर में ही रहने की आज्ञा दी, तब वह इस बात का पता लगाने लगे कि किस कारण से उनपर घर से निकलने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। एक दिन बड़े भाई की धाई से वसुदेव ने अंगराग-द्रव्य पीसती हुई गन्धद्रव्य की प्रभारिणी कुब्जा के बारे में पूछा: “यह किसके लिए विलेपन तैयार कर रही है ?" धाई ने कहा : “राजा के लिए।" वसुदेव ने पूछा : “मेरे लिए क्यों नहीं?" धाई ने बताया : “तुमने अपराध किया है, इसलिए तुम्हें विशिष्ट वस्त्राभरण और विलेपन नहीं मिलेगा।" इसके बाद धाई उन्हें रोकती रही, फिर भी उन्होंने जबरदस्ती उबटन ले ही लिया। तब, धाई रुष्ट होकर बोली : “इन्हीं आचरणों से राजा ने तुम्हारा कहीं बाहर आना-जाना रोक दिया है। फिर भी, तुम अपनी उद्दण्डता से बाज नहीं आते।" तब वसुदेव ने उससे यह पता लगाने को कहा कि राजा ने किस अपराध से उन्हें रोक रखा है। किन्तु, धाई राजा के भय से असलियत कह नहीं पाती थी। वसुदेव उसके पीछे पड़ गये और उसे एक अंगूठी देकर अनुनय-विनय किया, तब उसने उन्हें सही वस्तुस्थिति बता दी (श्यामाविजयालम्भ : पृ. ११९)।
इसी प्रकार, वसुदेव को मुर्ख समझकर, चम्पानगरी का संगीताचार्य सुग्रीव जब उन्हें अपना शिष्य बनाना नहीं चाह रहा था, तब उन्होंने उपाध्यायानी (सुग्रीव की पत्नी) को कटक (कंगन) घूस में देकर उससे शिष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए सुग्रीव के निकट अपनी सिफारिश कराई थी। पाँचवें सोमश्रीलम्भ (पृ. १८२) में भी उल्लेख है कि वसुदेव ने वेदज्ञ