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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
इसके अतिरिक्त, उस युग में अल्प वित्तवालों के लिए भोजनशाला की भी व्यवस्था थी, जहाँ स्थान बहुत कम रहता था, किन्तु ग्रामवास करनेवालों के लिए सुलभ दूध, दही, घी आदि की प्रचुरता रहती थी । चारुदत्त ने नदी में स्नान करके श्रेष्ठपुरुष जिनेन्द्र की वन्दना की और गाँव ( उशीरावर्त्त के अन्तिम आसन्नवर्त्ती गाँव) में प्रवेश किया। गाँव में कारखाने चल रहे थे और
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बार हो रहा था। देश और काल के अनुसार लाभ और प्राप्ति की व्यवस्था में संलग्न, उपवन की तरह सजे दूकानों (बाजारों) से वह गाँव नगर के समान दिखाई पड़ रहा था । चारुदत्त गलियों के बीच बने एक घर में प्रविष्ट हुआ और कम स्थानवाली भोजनशाला में हाथ-पैर धोकर उसने भोजन किया (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४५) । इससे यह अनुमान होता है कि उस युग के गाँवों में गृहोद्योगों की प्रचुरता थी और वे अपनी व्यापारिक समृद्धि से नगरों की समानता करते थे ।
उस युग में दीपक ही प्रकाश की व्यवस्था का माध्यम था । चारुदत्त ने अंगूठी के मूल्य से कुछ वस्तुएँ खरीदी और उनसे वह व्यापार करने लगा। उसके मामा विभिन्न देशों से सूत, रुई आदि वस्तुएँ एकत्र करते रहते । एक दिन मध्यरात्रि में चूहे दीये की जलती हुई बत्ती खींच ले गये, जिससे रुई में आग लग गई। चारुदत्त किसी तरह दूकान से बाहर निकला, किन्तु दूकान का बहुत बड़ा हिस्सा जल गया (तत्रैव : पृ. १४५ ) । इसी प्रकार, एक बार जब रात्रि में मानसवेग वसुदेव को हर ले गया, तब उन्हें बहुत सारे लोग दीपक लेकर चारों ओर सतर्क होकर ढूँढने लगे : "दीविगाहिं मग्गेज्जह सम्मं (वेगवतीलम्भ : पृ. २४९ ) ।” मन्दिरों या भवनों में प्राय: मणि या सुवर्ण के दीपक जलते थे : 'दीवमणिपकासियं अइगयाणि गब्भगिहै ।' (बन्धुमतीलम्भ) "दीवमणिपगासियं विमानभूयं पासायं ” ( तत्रैव, पृ. २७९) । 'पज्जालियकणगदीवं अइगया मो वासगिह ( नीलयशालम्भ : पृ. १८०) ।' एक बार वसुदेव ने सोमश्री का रुप धारण किये हुई एक छलनामयी को दीपक के प्रकाश में ही स्पष्ट रूप से देखा-पहचाना था : 'पस्सामि य दीवज्जाएण फुडसरीर देवि अण्णमण्णरूवं' (वेगवतीलम्भ: पृ. २२६) ।
'वसुदेवहिण्डी' में इस बात का उल्लेख है कि उस समय के लोग बत्तीस नोकों (लीवर) वाले ताले का व्यवहार करते थे । श्रावस्ती के मन्दिर में स्थित ब्राह्मण ने मृगध्वजकुमार और भद्रक भैंसे के यथाश्रुत चरित को समाप्त करते हुए वसुदेव से कहा: “यदि आप मन्दिर और उसमें प्रतिष्ठित सिद्धप्रतिमा का निकट दर्शन करना चाहते हैं, तो क्षणभर प्रतीक्षा करें। अपनी पुत्री वर का इच्छुक सेठ यहाँ आयगा और वह मन्दिर के द्वार पर लगे बत्तीस नोकोंवाले ताले को खोलेगा।” यह कहकर ब्राह्मण चला गया। ब्राह्मण की बात से वसुदेव को बड़ा कुतूहल हुआ और वे तालोद्घाटिनी विद्या से ताला खोलकर मन्दिर के अन्दर चले गये। मन्दिर का द्वार पूर्ववत् बन्द हो गया : "... सेट्ठी धूयवरत्थी एहिति बत्तीसाणीयगतालियं सो णं तं उघाडेहि त्ति वोत्तूण गतो । अहं पि को उहल्लेण तालुग्घाडणीय विहाडेऊण अइगतो । दुवारं तदवत्थं जायं (तत्रैव : पृ. २७९)।”
उस युग की स्त्रियाँ अपनी अभीष्ट - सिद्धि के लिए मनौती भी मानती थीं । कामपताका ने सूचीनृत्य के प्रदर्शन में निर्विघ्न सफलता के लिए चार दिनों का उपवास करके जिनेन्द्र का अष्टाहिक महामहोत्सव मनाने की मनौती मानी थी। मनौती मानते ही अज्ञात देवी ने नृत्यमंच पर रखी विषबुझी सुइयों को हटा दिया और वह सूचीनृत्य के प्रदर्शन में कथमपि विघ्नित-बाधित नहीं हुई । ("तं च कामपडाया जाणिऊण उवाइयं करेइ-जइ नित्थरामि पेच्छं तो जिणवराण अट्ठाहियं