________________
वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३१३ वरण किये गये पति को ही अपनाती थीं और इस प्रकार स्वयंवर एक औपचारिक नियममात्र होता था। कहना न होगा, उस युग में पति के निर्वाचन के सन्दर्भ में माता-पिता की इच्छा को तरजीह देने में कन्याएँ अपना गौरव मानती थीं और इसके लिए वे कठोर संघर्ष और गम्भीर साधना को भी सहर्ष स्वीकार कर लेती थीं। 'महाभारत' और पुराणों में इसके अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनमें रूपवती सुकन्या (अन्ध च्यवन ऋषि की पत्नी), पतिप्राणा सावित्री (अल्पायु सत्यवान् की पली), विद्योत्तमा या विद्यावती (कालिदास की मौर्ण्यकालीन विदुषी पत्नी) और फिर 'वसुदेवहिण्डी' की ही रेणुका (वृद्ध जमदग्नि तापस की बालका पली) आदि के नाम उल्लेख्य हैं। इस सन्दर्भ में कथाकार ने खाली मुट्ठी दिखाकर बच्चों को फुसलाने की बात लिखकर अपने बालमनोविज्ञान के व्यावहारिक ज्ञान की भी सूचना दी है।
_ 'वसुदेवहिण्डी' से यह मूल्यवान् सूचना भी मिलती है कि उस युग के समाज में जातिभेद के प्रति प्राय: आग्रह नहीं था। जाति की अपेक्षा सुन्दरता और गुण-शील को ही अधिक महत्त्व प्राप्त था। इसीलिए, वसुदेव ने यथाप्राप्त अपनी पलियों के रूप-गुण को ही अधिक मूल्य दिया था। संगीत और नृत्य या सभी प्रकार की ललितकलाओं में निपुण होना कन्याएँ या स्त्रियाँ उस काल में अधिक समादृत थीं। सेठ या राजा अपनी पुत्रियों के लिए कलावन्त पति ही ढूँढ़ते थे या कलाविशेषज्ञ, रूपवान् युवा और बलशाली पति की प्राप्ति के उद्देश्य से ही स्वयंवर का आयोजन कराते थे। इस प्रकार, कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित लोकजीवन या समाज के प्रत्येक व्यवहार में जाति की अपेक्षा कला का अधिक मूल्य था।
प्राचीन युग में धनराशि या आभूषणों को जमीन के नीचे गाड़कर रखने की सामान्य सामाजिक प्रथा थी। पति के द्वारा गाड़कर रखे गये धन का पता पत्नी को भी नहीं रहता था। तभी तो, चारुदत्त के पूछने पर उसकी माँ ने उसके पिता द्वारा गाड़कर रखे गये धन के विषय में अपनी अज्ञता प्रकट की थी : “अहं न याणं निहाणपउतं वा वडिपउत्तं वा परिजनपवित्थरपउत्तं वा (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४४)।” स्पष्ट है, जमीन में धन गाड़कर रखना अतिशय व्यक्तिगत और गोपनीय कार्य था। वसुदेव भी अपने साथ अनेक आभूषणों को लेकर भ्रमण करते थे और उनसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का काम भी लेते थे। किसी नगर में प्रवेश करने के पूर्व वह नगर के बाहर किसी उद्यान में जमीन के नीचे आभूषणों को छिपाकर रख देते थे। चम्पानगरी में प्रवेश करते समय भी उन्होंने प्रच्छन्न भूमिभाग में अपने आभूषणों को छिपाया था, इसका स्पष्ट उल्लेख है: “आभरणाणि पच्छन्ने भूमिभाए णिहिएऊणं अइगओ मि नयर (तत्रैव, पृ. १२७) ।” वसुदेव के साले अंशुमान् ने भी, आकाशचारी हाथी द्वारा अपहृत वसुदेव को ढूँढने के क्रम में, जंगल में रहते समय अपने गहनों को एक दोने में रखकर फलों से ढक दिया था : “ततो आभरणाणि मे पत्तपुडे पक्खिविऊण छाइयाणि फलेहिं (पद्मालम्भ : पृ. २०५)।"
'वसुदेवहिण्डी' से यह भी सूचित होता है कि उस युग में भिखमंगों-दीन, कृपण और अनाथ लोगों की कमी नहीं थी। वसुदेव ने राजगृह की द्यूतशाला में जीते हुए सोना, मोती और मणियों के ढेर को दीन, कृपण और अनाथ लोगों में बाँट दिया था: “दीणं किवणे अणाहं जणं सद्दावेहि अहं वित्तं दाहामि ति (वेगवतीलम्भ : पृ. २४८)।" इसी प्रकार, शाम्ब ने भी द्यूत में सुभानु से प्राप्त एक करोड़ की राशि दीनों और अनाथों मे वितरित कर दी थी : “दीणाणाहाण य दत्तं वित्तं (मुख, पृ. १०६)।"