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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
तो सुनो, माता-पिता कन्या को जिस पति के लिए देते हैं, चाहे वह सुरूप हो या कुरूप, गुणी हो या गुणहीन, विद्वान् हो या मूर्ख, वह उसके लिए आजीवन एकनिष्ठ भाव से देवता के समान सेवनीय है । तभी, वह इस लोक में यशोभागिनी और परलोक में सद्गति की अधिकारिणी होती . है । कुलवधू का यही धर्म है। तुम जो मानसवेग की प्रशंसा करती हो, वह अनुचित है । जो राजधर्म के अनुसार चलता है और कुलीन होता है, वह सोई हुई अज्ञात कुलशील स्त्री का अपहरण नहीं करता । तुम्हीं सोचो, यह वीरता है या कायरपन ? यदि मेरे आर्यपुत्र को जगाकर वह मेरा अपहरण करता, तो अपने को जीवित नहीं पाता। फिर, जो तुम कहती हो कि मेरा भाई विद्याधर रूपवान् है, तो सुनो, चन्द्रमा से अधिक कान्तिमान् कोई दूसरा नहीं है, उसी प्रकार सूर्य से अधिक तेजस्वी भी कोई नहीं है। मैं भी यही मानती हूँ कि मेरे आर्यपुत्र से अधिक रूपवान् न कोई मनुष्य है, न कोई देव ही । वह अकेला होकर भी सबके साथ युद्ध करने में समर्थ हैं, मतवाले हाथ वश में कर लेते हैं और शास्त्र में तो बृहस्पति के समान हैं । वह न्यायप्रिय राजकुल में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार, हे वेगवती, मैं पुरुषोत्तम की पत्नी हूँ। मैं किसी परपुरुष की मन से भी इच्छा करती हूँ, यह बात तुम कभी अपने मन में भी नहीं लाना । मेरे आर्यपुत्र के इतने गुण हैं कि उनका एक जिह्वा से वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है । मैं तो यह मानती हूँ कि जिस प्रकार समुद्र रत्न की खान है और उसी में से निकले कुछ अद्भुत रत्न जनपदों में पाये जाते हैं, उसी प्रकार मेरे आर्यपुत्र में पुरुषोचित समस्त गुण निहित हैं, किन्तु दूसरे पुरुष में तो कुछ ही गुण पाये जाते हैं । इसलिए, तुम खाली मुट्ठी से बच्चों की तरह मुझे मत फुसलाओ और न अनार्य जन के योग्य बात करो। "
सामाजिक सिद्धान्तों से संवलित भारतीय लोकमर्यादा के स्थिति-स्थापक तथा सम्पूर्ण स्त्रीजाति के लिए गौरवजनक, मानवी के इस विद्वत्तापूर्ण वक्तव्य को सुनकर वेगवती ने उस (मानवी) क्षमा माँगते हुए नम्रतापूर्वक कहा: “आयें ! मैं भी लोकधर्म जानती हूँ। यह मार्ग हमारे कुलधर्म के योग्य नहीं है । मानसवेग ने परस्त्री का अपहरण करके अनुचित कार्य किया है। मैंने भ्रातृस्नेहवश तुमसे जो अनभिजात बातें कही हैं, उसके लिए क्षमा करो। मैं फिर ऐसा कभी नहीं कहूँगी।”
यह मानवी और कोई नहीं, वरन् स्वयं चरितनायक शलाकापुरुष वसुदेव की पत्नी सोमश्री है। और, वेगवती भी उनकी पत्नी ही बनी है। इन दोनों के आलाप - प्रत्यालाप के व्याज से संघदासगणी ने पतिप्राणा भारतीय आर्यललना का, आदर्श की दीप्ति से समुद्भासित रूप उपस्थित किया है; साथ ही कुल, शील, विद्या, रूप, गुण और बल से अतिशय ऊर्जस्वल एवं वर्चस्वी भारतीय पति की आदर्श परिभाषा भी प्रस्तुत कर दी है। इसके अतिरिक्त, कथाकार ने यह भी संकेतित किया है कि सुप्तावस्था में स्त्री का अपहरण न केवल समाजविरुद्ध, अपितु राजधर्मविरुद्ध कार्य है । ऐसा कार्य करके राजधर्म का उल्लंघन करनेवाला मनुष्य कायर तो है ही, अकुलीन भी है। इसके अतिरिक्त, इस बात की सूचना भी मिलती है कि उस युग की कुछ कन्याएँ पिता के अधीन थीं, इसलिए वे पिता के द्वारा यथारूप निर्वाचित पति को ही स्वीकार करने को विवश थीं, और स्वयंवर की प्रथा प्रचलित रहने के बावजूद वे स्वानुकूल पति प्राप्त करने की सुविधा से वंचित थीं । अन्यथा, यथारूप प्राप्त पति को आजीवन एकनिष्ठ भाव से देवता मानकर पूजा करने की बात मानवी के मुख से कथाकार क्यों कहलवाता ? यों, स्वयंवर आयोजित होने पर भी कन्याएँ प्रायः पिता-माता द्वारा अनुमोदित या पूर्वराग की मनोदशा में अपने अन्तःकरण से