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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३११ दृष्टि से देखें, यह और बात है। किन्तु, यहाँ कथाकार ने उस वात्सल्यमयी माँ के असाधारण मनोविज्ञान की ओर संकेत किया है, जिसका पुत्र जन्म लेते ही उससे बिछुड़ गया था। वही पुत्र जब वर्षों बाद उसे मिला, तब वह स्नेह के आतिशय्यवश सुध-बुध खोकर युवा पुत्र को शिशु समझ बैठी और पत्रस्नेह के लिए चिरबभक्षित मातत्व की सार्थकता के निमित्त. अवचेतन स्थिति में, अपने प्रस्तुत (झरते) स्तन को उसके मुँह में डाल दिया। वात्सल्यभाव का यह अतिरेचन स्नेहमयी माँ की असाधारण मनोदशा का परिचायक है, साथ ही कथाकार की अद्भुत मनोवैज्ञानिक या मनोविश्लेषणात्मक प्रातिभ कल्पना का संकेतक भी। ___'वसुदेवहिण्डी' से यह भी सूचित होता है कि तत्कालीन समाज में निस्सन्तानता की स्थिति बड़ी हेय और दयनीय मानी जाती थी। यहाँतक कि निस्सन्तान व्यक्ति की तपस्या भी निन्दनीय करार दी जाती थी। चौदहवें मदनवेगालम्भ में कथा (पृ. २६६) है कि जमदग्नि की दाढ़ी में घोंसला बनाकर रहनेवाले नर-मादा पक्षी आपस में बात कर रहे थे। नर पक्षी परदेश (हिमालय पर्वत) जाना चाहता था, किन्तु मादा पक्षी उसे रोक रही थी, इसलिए कि परदेश जाकर वह उसे भूल जायगा और दूसरी मादा को स्वीकार कर लेगा। इसपर नर ने मादा को विश्वास दिलाया कि वह वैसा नहीं करेगा। इस बात पर मादा ने नर से जमदग्नि मुनि की शपथ खाने की बात कही। तब नर ने कहा : “तुम दूसरी जो भी शपथ कहो, मैं खाने को तैयार हूँ, लेकिन इस ऋषि के पाप की शपथ नहीं लूँगा।"
___ जमदग्नि मुनि ने दोनों पक्षियों की बातचीत सुनी, तो उन्होंने नर पक्षी को हाथ से पकड़कर पूछा : “मैं हजारों वर्षों से क्वाँरा और ब्रह्मचारी रहकर यहाँ तप कर रहा हूँ, तो फिर मैंने कौन-सा पाप किया, जो तुम मेरे पाप की शपथ नहीं लेना चाहते हो?" पक्षी ने उत्तर दिया : “आप निस्सन्तान हैं, या विवाह न करके आपने सन्तान-परम्परा का व्यवच्छेद किया है; इसलिए नदी-तटवर्ती वृक्ष की भाँति, जिसकी जड़ों को पानी का वेग निरन्तर खंगालता जा रहा है, निराधार होकर दुर्गति को प्राप्त करेंगे । आपके नाम तक को कोई नहीं जान पायगा। यही क्या कम पाप है? आप सन्तानयुक्त दूसरे ऋषि को नहीं देखते?" पक्षी की बात से प्रभावित जमदग्नि अपनी नि:सन्तानता पर चिन्ता करने लगे और अरण्यवास छोड़, दारसंग्रह के लिए इच्छुक हो उठे।
___ 'वसुदेवहिण्डी' से यह भी संकेत मिलता है कि उस युग की स्त्रियाँ केवल अपने पतियों को छलनेवाली या कामोष्मा से दग्ध रहनेवाली ही नहीं थीं, अपितु उनपर अभिमान भी करती थीं और लोकधर्म की जानकारी भी उन्हें रहती थी। कथा है (वेगवतीलम्भ : पृ. २२८) कि वेगवती का भाई मानसवेग विद्याधर बड़ा कामलोलुप था। उसने एक दिन किसी विवाहिता मानवी का सुप्तावस्था में अपहरण कर उसे अपने प्रमदवन में ला रखा। किन्तु मानवी उससे निरन्तर विमुख रहती थी। तब, मानसवेग ने मानवी को अपने प्रति अनुकूलित करने का भार अपनी बहन वेगवती को सौंपा। जब वेगवती ने अपने भाई के रूप, कुल और वय की प्रशंसा करते हुए उसका काम-प्रस्ताव मानवी के समक्ष रखा, तब उसने उस विद्याधरी को जो कड़ी फटकार बतलाई, उसमें एक भारतीय कुल-ललना की प्राचीन मर्यादावादी समाजनिष्ठा के प्रति अविचल भावना का गर्वोद्घोष स्वाभिमान की उत्कृष्टता के साथ अनुगुंजित है।
.. वेगवती से मानवी ने कहा : “वेगवती ! तुम पण्डिता हो, ऐसा मैंने दासी के मुँह से सुना है। लेकिन, तुम बहुत अनुचित बात करती हो अथवा भ्रातृस्नेह के कारण आचार से चूक गई है।