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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ब्राह्मण ब्रह्मदत्त उपाध्याय की पत्नी को कंगन दक्षिणा में दिया था और अपना परिचय स्कन्दिल गौतम के रूप में उपस्थित करके ब्रह्मदत्त उपाध्याय से आर्य और अनार्य, दोनों प्रकार के वेदों का अध्ययन किया था।
___इन कथाप्रसंगों से यह ज्ञात होता है कि पुरायुग के समाज में बहुमूल्य सुवर्ण या मणि-रल-निर्मित आभूषण ही घूस या प्रलोभन के लिए दिये जाते थे और इसे 'प्रीतिदान' या 'तुष्टिदान' कहा जाता था; किन्तु आजकल द्रव्य और रुपया, दोनों ही रूपों में घूस देने की प्रथा प्रचलित है, जो अब सर्वथा सामाजिक शोषण का ही पर्याय-प्रतीक बन गई है।
'वसुदेवहिण्डी' से यह संकेत मिलता है कि उस युग में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके आत्मीय पुरसाँ या पूछताछ के लिए उसके घर पर उपस्थित होते थे। क्षीरकदम्ब उपाध्याय की मृत्यु हो जाने पर उसका शिष्य नारद पितृशोक से तप्त उसके पुत्र पर्वतक के यहाँ गया था। पर्वतक के घर पहुँचकर नारद ने विधवा उपाध्यायानी की वन्दना की और पर्वतक को धैर्य बँधाया कि “तुम शोक मत करो” । (“उवज्झायमरणदुक्खियो य दुव्वो त्ति संपहारिऊण गतो उवज्झायगिहं । वंदिया उवज्झायिणी। पव्वयओ य संभासिओ-अप्पसोगेण हो एयव्वंति'; सोमश्रीलम्भ: पृ. १९०)।
उस युग में राजा से पूजित होने का सहज गर्व भी लोगों को होता था। और, इसके लिए उन्हें स्वभावत: घमण्ड भी रहता था। परिणामतः, वे स्वच्छन्दचारी हो जाते थे। राजा से समादृत होकर पर्वतक अहंकारी हो गया था और उसने 'अजैर्यष्टव्यम्' मन्त्र की हिंसापरक व्याख्या करके हिंसायज्ञ को प्रोत्साहन दिया था ("राजपूजिओ अहं ति गविओ पण्णवेति-अजा छगला, तेहि य जइयव्वं इति"; तत्रैव: पृ. १९०-१९१) ।
इस प्रकार, संघदासगणी ने भारतीय लोकजीवन के विविध पक्षों की सामाजिक विशेषताओं का समीचीन समुद्भावन किया है, जिनमें मानवजीवन के विभिन्न गुणावगुणों के मनोरंजक तथा लोमहर्षक, विशुद्ध तथा विकृत स्थितियों की स्वच्छ-मलिन छवियाँ उभरकर सामने आई हैं। कहना न होगा कि संघदासगणी की समाज-चिन्ता सम्पूर्ण भारतीय समाज-चिन्तन की समग्रात्मकता के रुचि-वैचित्र्य के आसंग में पारम्परीण उपलब्धियों और प्राक्तन मल्यों के साथ उपन्यस्त हुई है। समाज के मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों सहज गुणों या धर्मों को चित्रित करते हुए सम्यक्त्ववादी कथाकार ने समाज की सहज सम्यक्त्व-सिद्धि पर ही अधिक बल दिया है और उन्होंने जिस उत्कृष्ट और आदर्श भारतीय समाज की परिकल्पना की है, तथा उसमें जो लोकमर्यादा रेखायित हुई है, वह अपने शाश्वतिक मूल्य के कारण भावी समाज के लिए दिशानिर्देशक है। संघदासगणी का आदर्श भारतीय समाज तीर्थंकर शान्तिनाथ-कालीन समाज के व्याज से इस प्रकार चित्रित हुआ हैं :
"भव्य-रूपी कुमुद-वन का बोधन-विकास करते हुए जिनचन्द्र शान्तिनाथ जहाँ-जहाँ विहार करते, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक की भूमि समतल और पैदल चलने योग्य हो जाती; उसपर सुगन्धपूर्ण गन्धोदक से सिंचन हो जाता तथा वृन्तसहित पाँच प्रकार के फूलों की वर्षा हो जाती, जिसमें वृन्त नीचे की ओर रहता और फूल ऊपर की. ओर खिले रहते। सभी