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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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स्त्रियों के चरित्र को दैव भी नहीं जानता, फिर मनुष्य की क्या बात है? सबसे अधिक ध्यान देने की बात है कि कथाकार ने, यथोक्त मित्रश्री की कथा में कुट्टनी का आचरण करनेवाली परिव्राजिका को उपहासास्पद और दण्डनीय सिद्ध किया है। साथ ही, परिव्राजक-धर्म के प्रति अनास्था भी प्रकट की गई है। इसके अतिरिक्त, और एक महत्त्वपूर्ण बात की सूचना मिलती है कि परिव्राजिका अंजनसेना, भरत के नाट्यशास्त्र के अनुसार, वैशिक दूती के कार्यकलाप में अतिशय कुशल थी और पुरुषों के प्रति स्त्रियों को उत्सुक करने की कला में भी निपुण थी। भरत ने कहा है कि पुरुष से द्वेष करनेवाली स्त्री को इष्ट कथाओं से और भयग्रस्ता को आश्वासन से अनुकूलित करना चाहिए। तदनुकूल, अंजनसेना ने परपुरुष के संग की बात से भयग्रस्ता मित्रश्री को तीर्थों और जनपदों की विविध कथाओं, शास्त्रीय तर्कों और उचित आश्वासनों से नागसेन के प्रति अनुकूलित किया है। इससे यह प्रकट है कि कथाकार संघदासगणी को वैशिक शास्त्र का गम्भीर ज्ञान था और वैशिक जीवन के विभिन्न व्यावहारिक पक्षों से वह पूर्ण परिचित थे।
भारतीय समाज के उक्त दूषित पक्ष के प्रति सतर्क दृष्टि रखनेवाले कथाकार संघदासगणी ने इस प्रकार की समाजविरोधी घटनाओं को अनुचित ठहराया है; क्योंकि इससे सामाजिक आचार का अतिक्रमण होता है और इसीलिए उन्होंने परस्त्री-गमन की निन्दा की है। उन्होंने अपनी इस मान्यता की पुष्टि के निमित्त परदारदोष के सम्बन्ध में वासव का उदाहरण (द्र. गौतम-अहल्या-कथा, प्रियंगुसुन्दरीलम्भः पृ. २९२) भी प्रस्तुत किया है, साथ ही समाज को दूषित करनेवाले कामाचारियों के प्रति कठोर राजदण्ड के प्रावधान का भी उल्लेख किया है। इस युग में समाज की स्त्रियों को बहकाकर मार्गभ्रष्ट करनेवाली पाखण्डी स्त्रियों को भी दण्डित किया जाता था। चूँकि, स्त्रियों के लिए वध के दण्ड का निषेध था, इसलिए उनको, आत्मप्रायश्चित्त के लिए, अंगभंग करके, देश से निर्वासित कर दिया जाता था।
समाज में भाइयों के बीच होनेवाले झगड़े की ओर भी संघदासगणी ने दृष्टिपात किया है। इस सम्बन्ध में जयपुर के राजा सुबाहु के बेटे मेघसेन और अभग्नसेन की पारस्परिक संघर्ष-कथा (पद्मालम्भ : पृ. २०६) अच्छा प्रकाश डालती है। फिर, केतुमतीलम्भ (पृ. ३२१) में इन्दुसेन और बिन्दुसेन नाम के दो बड़े-छोटे भाइयों के आपसी झगड़े का भी सुन्दर चित्रण हुआ है। ये दोनों रत्नपुर नगर के राजा श्रीसेन की रानी अभिनन्दिता के पुत्र थे। ये दोनों भाई अनन्तमती गणिका को प्राप्त करने की अहमहमिका में देवरमण उद्यान में परस्पर लड़ पड़े थे। इन दोनों के आपस में लड़कर मर जाने की आशंका से स्नेहमृदुलचित्त पिता राजा श्रीसेन तालपुट-विषमिश्रित कमल का फूल सूंघकर मर गया। इसी प्रकार, अपने सौतेले भाइयों के विरोध के कारण रावण (रामण) भी अपने विद्याधरलोक अरिंजयपुर को त्याग कर लंकाद्वीप में जाकर रहने लगा था। उस युग में प्राय: द्यूत, गणिका और राज्य को लेकर ही भाइयों में झगड़ा हुआ करता था। आधुनिक काल में भी, समाज में प्राय: जर, जोरू और जमीन को लेकर ही भाइयों या गोतिया-दायादों में लड़ाई-झगड़े हुआ करते हैं। लोकजीवन के असत् पक्ष का यह लोमहर्षक उदाहरण है। कहना न होगा कि संघदासगणी लोकजीवन के विभिन्न पक्षों की व्यापक अनुभूति को यथार्थ अभिव्यक्ति देनेवाली अद्वितीय कथाकार थे।
१. नाट्यशास्त्र, २५.३४-३५