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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
कही : “देवता के नैवेद्यस्वरूप इन्द्रियग्राह्य द्रव्यों का उपभोग अवश्य करना चाहिए। अतीत की बातों को नहीं सोचना चाहिए, बल्कि अपने भविष्य पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्य का यह गुणधर्म है कि वह दृश्य पदार्थ की स्वयं आकांक्षा करता है, जिस प्रकार माली फूलों की ।"
अंजनसेना जब मित्र श्री में विश्वास उत्पन्न कर चुकी, तब उसने एकान्त में उससे कहा : " तुम्हारे मन को जो पुरुष भाये, उसके साथ अपने यौवन का सम्मान करो। वन्यलता की उपभोग से वर्जित रहना तुम्हारे लिए ठीक नहीं।" तब, अपनी कुलीनता का खयाल कर मित्र श्री बोली : "माता ! परपुरुष की प्रार्थना स्त्रियों के लिए पाप माना जाता है। तुम इस बात की प्रशंसा क्यों कर रही हो ?” अंजनसेना ने दार्शनिक वाचोयुक्ति से काम लिया : "इसमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। कौन पण्डित है, जो इसे नहीं जानता ? शरीर तो (भोग का) निमित्तमात्र है । शरीर नष्ट होने पर कोई भी परभव में नहीं जाता। इसलिए, मूर्ख मत बनो ।” अंजनसेना का दार्शनिक तर्क सुनकर मित्रश्री बोली : "हमें अपनी यश-प्रतिष्ठा की भी रक्षा करनी चाहिए ।" अंजनसेना उसे आश्वस्त करती हुई बोली : " इस ओर से तुम निश्चिन्त रहो। इसी नगर में नागसेन नाम का रूपवान् क्वाँरा युवक है। वह समर्थ भी है और विभिन्न कलाओं में कुशल भी। मैं उसे तुम्हारे घर में इस प्रकार ले आऊँगी और फिर बाहर निकाल ले जाऊँगी कि कोई नहीं जान सकेगा ।" इस प्रकार, उस अंजनसेना ने देवता के नैवैद्य के बहाने मित्रश्री को गन्ध और रस के प्रति पूर्ण आसक्त बना दिया । वह बार-बार नागसेन को मित्र श्री के घर ले आती थी और बड़ी होशियारी से बाहर निकाल ले जाती थी ।
एक दिन राजपुरुषों ने विना सूचना दिये मित्र श्री के घर पर छापा मारा और नागसेन को पकड़ लिया। उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। अंजनसेना की काली करतूत प्रकाश में आ गई। राजा ने निर्णय करके आदेश दिया : "मुझे वणिक्पत्नी की रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि सार्थवाह दूसरे देश में समुद्रयात्रा पर है। आचार का अतिक्रमण करनेवाला नागसेन मृत्युदण्ड का भागी है और परिव्राजिका स्त्री के नाक-कान काटकर उसे देश से निर्वासित कर दिया जाय । " राजाज्ञा के अनुसार, नागसेन को सूली पर चढ़ा दिया गया। अंजनसेना के जब नाक-कान काट लिये गये, तब वह कनखलद्वार में गंगातट पर कठोर अनशन करके मर गई ।
संघदासगणी ने तो ऐसी माता का भी जिक्र किया है, जो अपने पोष्यपुत्र के प्रति कामासक्त हो उठी थी (पीठिका: पृ. ८४ ) । कालसंवर विद्याधर की पत्नी विद्याधरी कनकमाला, धूमकेतु द्वारा अपहृत और भूतरमण अटवी की शिला पर लाकर रखे गये नवजात शिशु प्रद्युम्न को अपने घर उठा लाई और पालने - पोसने लगी। जब प्रद्युम्न सोलह वर्ष का युवा हो गया, तब यौवन से समुद्भासित उसके अद्वितीय रूप को देखकर कनकमाला उसपर रीझ गई और कामपीड़ा से अस्वस्थ रहने लगी। परन्तु, प्रद्युम्न ने उसके काम प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अपने हृदय में उसे गौरवपूर्ण मातृत्व-पद पर ही प्रतिष्ठित किये रहा। किन्तु, कामाहत कनकमाला रुष्ट हो गई और उसने प्रद्युम्न के विरुद्ध अपने पति कालसंवर का कान भर दिया। अन्त में, नारद के द्वारा वस्तुस्थिति का पता लगने पर प्रद्युम्न कनकमाला के चंगुल से निकल भागा।
इन कथाप्रसंगों से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों का चरित्र कभी विश्वसनीय नहीं होता । इसीलिए, नीतिकारों ने भी कहा है : "स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः ।” अर्थात्,