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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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देखने में अपनी माँ के समान ही रूपवान् था । वसुदत्ता की उन दुष्टा सपनियों ने कालदण्ड को भड़काया : “तुम अपनी प्रधानमहिषी का चरित्र नहीं जानते। यह परपुरुष में आसक्त है । यह तुम्हारा पुत्र परपुरुष से ही उत्पन्न हुआ है। यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता, तो अपने से मिलाकर - देखो । ” कालदण्ड के मन में कडुवाहट भर आई। उसने म्यान से तलवार निकाल कर उसमें अपना मुँह देखा । रूपवान् लड़के के मुख से उसके विकृत मुख का कोई तालमेल ही नहीं था । बस, उस पापी ने विना सोचे-समझे तलवार से अपने नवजात पुत्र के दो टुकड़े कर दिये और वसुदत्ता को पहले बेंत और चाबुक से पिटवाया, फिर उसका माथा मुड़वाकर अपने चोरों को आदेश दिया कि इसे पेड़ से बाँध दो। चोरों ने उसे शालवृक्ष के साथ रस्सी से बाँध दिया और उसके चारों ओर काँटे बिखेर दिये । वह बेचारी पूर्वकर्मनिवृत्तिमूलक दुःख का अनुभव करती अनाथ बनी बिसूरती रही ।
इस कथाप्रसंग से इस बात की जानकारी मिलती है कि तत्कालीन सपनियाँ किसी एक स्त्री के प्रति आकृष्ट अपने पति का कामभोग न पाकर क्षुब्ध हो उठती थीं और प्रतिक्रियावश उस अतिशय प्रिय स्त्री के सम्बन्ध में, पति के मन में चारित्रिक अविश्वास उत्पन्न करके उसे जघन्यतम स्थिति में पहुँचवा देती थीं। इससे इस बात की भी सूचना मिलती है कि कामपरवश स्त्रियाँ इतनी अधिक भयंकर हो जाती हैं कि उनकी निर्ममता राक्षसी के क्रूरतम आचरण को भी मात कर देती है । कहना न होगा कि प्राचीन भारतीय कथा - वाङ्मय में सामाजिक स्थिति के चित्रण के क्रम में, सपनियों के खलचरित के अनेक रोमांचक आयाम उपलब्ध होते हैं, किन्तु संघदासगणी द्वारा प्रस्तुत सपत्नी के उक्त कपटाचरण की कथा के आस्वाद में सर्वथा भिन्न तीक्ष्णता की अनुभूति होती है। अपने से बड़ों की बात न मानने के कारण वसुदत्ता की जो कदर्थना हुई है, उससे भारतीय समाज की स्त्रियों को एक ऐसी शिक्षा भी मिलती है, जिसका अपना शाश्वतिक मूल्य है ।
संघदासगणी ने समाज की कामपरवश स्त्रियों का चित्रण तो किया ही है, स्त्री को कामोत्सुक करनेवाली स्त्री का भी बड़ा उत्तेजक चित्र प्रस्तुत किया है। इस सम्बन्ध में 'वसुदेवहिण्डी' के चौदहवें मदनवेगालम्भ की कथा का एक प्रसंग (पृ. २३२) उदाहर्त्तव्य है । नागसेन नाम का कोई वणिक्पुत्र मथुरा के सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी मित्रश्री का रतिसुख प्राप्त करना चाहता था । किन्तु, जब उसे कोई उपाय नहीं सूझा, तब उसने अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए अंजनसेना नाम की परिवाजिका स्त्री से सहायता की याचना की। एक दिन, जब मित्रश्री का पति सागरदत्त प्रवास में था, अंजनसेना उसके घर पहुँची । मित्रश्री ने अंजनसेना को स्वागत-सत्कार करके आसन पर बैठाया। इसके बाद अंजनसेना ने मित्रश्री को नागसेन के प्रति पर्युत्सुक करने के निमित्त बड़े ही प्रलोभक और प्रभावक ढंग से मनोवैज्ञानिकता के साथ बातचीत शुरू की। पहले तो उसने मित्रश्री
अनेक तीर्थों और विभिन्न जनपदों की कथाएँ सुनाईं। फिर उसके दुर्बल और मलिन रहने का कारण पूछा। इसपर मित्रश्री ने बताया कि पति के प्रवास में रहने के कारण अपने शरीर का संस्कार उसके लिए उचित नहीं है । तब, अंजनसेना बोली: “स्नान आदि से शरीर का संस्कार तो करना ही चाहिए। शरीर में देवों का वास रहता है। शरीर के संस्कार से देव पूजित होते हैं।" इसके बाद, नित्य नहानेवाली वह परिव्राजिका कामोत्तेजक गन्धद्रव्य और सुगन्धित फूल लाती और मित्रश्री से कहती: “मुझे यह मिल गया था, तो तुम्हारे लिए लेती आई । ” लेकिन, मित्रश्री उक्त सामग्री नहीं लेना चाहती थी । तब अंजनसेना ने मित्रश्री से बुद्धिभेद उत्पन्न करनेवाली बात