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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा संघदासगणी ने कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का कथानक प्रस्तुत करते हुए, एक ही भव में सामाजिक रिश्ते की विचित्रता पर बडा मनोरंजक सन्दर्भ उपस्थित किया है। कथा (कथोत्पत्ति : पृ. १०) है कि मथुरा की कुबेरसेना नाम की गणिका ने यमज सन्तान पैदा की, जिसमें एक पुत्र था और दूसरी पुत्री। उनके नाम रखे गये—कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता। दस रात के बाद कुबेरसेना ने उन दोनों नवजात सन्तानों को नाममुद्रांकित करके, रत्नपूरित छोटी नाव में रखकर यमुना में प्रवाहित कर दिया। नाव बहती हुई शौरिकनगर में जा लगी। वहाँ के इभ्यपुत्रों ने नाव में बच्चों को देखा, तो एक ने पुत्र को ले लिया और दूसरे ने पुत्री को । क्रम से जब दोनों सन्ताने युवा हुईं, तब दोनों का आपस में (भाई-बहन में) विवाह हो गया। बाद में नाममुद्रा से रहस्य का पता चला। कुबेरदत्ता निर्वेद में पड़कर प्रव्रजित हो गई और चारित्रविशुद्धि के कारण उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।
भूलता-भटकता कुबेरदत्त अपनी माँ कुबेरसेना के घर पहुंचा और वस्तुस्थिति की जानकारी के अभाव में वह उसके साथ गार्हस्थ्य-सुख का अनुभव करने लगा। इसी बीच कुबेरदत्त से कुबेरसेना के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। एक दिन आर्याओं के साथ विहार करती हुई कुबेरदत्ता, कुबेरदत्त को समझाने के निमित्त, जब कुबेरसेना के घर पहुँची, तब कुबेरसेना अपने नवजात पुत्र को साध्वी कुबेरदत्ता के पास ले आई। प्रतिबोधन का अवसर पाकर, कुबेरदत्त को सुनाती हुई वह, उस बालक से अपने विचित्र सम्बन्धों की चर्चा करने लगी : ___“बालक ! तुम मेरे भाई हो; देवर, पुत्र और सपत्लीपुत्र भी हो, भतीजा और चाचा भी हो; तुम जिसके पुत्र हो, वह मेरा भाई और पति है; पिता, पितामह (नाना), ससुर और पुत्र भी है और जिसके गर्भ से तुम पैदा हए हो, वह मेरी माता, सास और सपत्नी तो है ही, भौजाई, पितामही (नानी) और पतोहू भी है।" वस्तुस्थिति के सामने आने पर कुबेरदत्त को भी वैराग्य हो गया। ठीक यही कथा-प्रसंग हेमचन्द्र के 'परिशिष्ट पर्व' के द्वितीय सर्ग में भी उपन्यस्त है।
उपर्युक्त विचित्र सामाजिक चित्रों के अतिरिक्त, 'वसुदेवहिण्डी' में और भी अनेक अद्भुत चित्र अंकित हुए हैं, जिनसे कथाकार के सामाजिक जीवन के गहन और सूक्ष्मतर अध्ययन की सूचना मिलती है।
उस युग की यह मान्यता थी कि अतिथि देव-स्वरूप होता है या वह सबके लिए गुरुतुल्य, अतएव पूजनीय होता है। हितोपदेशकार ने लिखा भी है : 'सर्वदेवमयोऽतिथि:' और 'सर्वस्याभ्यागतो गुरुः।' संघदासगणी ने भी अपनी इस वरेण्य कथाकृति में जगह-जगह अतिथियों की शानदार स्वागत-विधि का उल्लेख किया है। वसुदेव जैसे शलाकापुरुष अतिथि के स्वागत में देश के बड़े-बड़े राजा, सेठ और सार्थवाह जैसे आतिथेयों ने अपने को परम गौरवान्वित और
सातिशय कृतार्थ माना है, साथ ही उन्होंने भारतीय शिष्टता और रुबचार के निर्वाह में उत्कृष्ट , आदर्श और सांस्कृतिक एवं आर्थिक आढ्यता का प्रदर्शन किया है।
वैताढ्यपर्वत की दक्षिण श्रेणी के किन्नरगीत नगर के राजा अशनिवेग की रानी सुप्रभा की पुत्री श्यामली से विवाह होने के पूर्व वसुदेव को पवनवेग और अर्चिमाली नाम के दो विद्याधर किन्नरगीत नगर में आकाशमार्ग से ले आये थे। राजा के आदेश से वसुदेव का उत्तम आतिथ्य किया गया था (श्यामलीलम्भ : पृ. १२३)। राजपरिजन के लोग नहाने के बाद पहनने के निमित्त