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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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रही थी। उसी समय एक आरक्षी-अधिकारी (डिण्डी) उस महल के निकट से जा रहा था । धनश्री ने पान थूका, तो उसी पर पड़ गया। आरक्षी-अधिकारी ने ऊपर आँख उठाई, तो देवी-सदृश धनश्री को देखकर वह कामाहत हो उठा। आरक्षी-अधिकारी ने धनश्री के समागम की प्राप्ति के निमित्त विनीतक से दौत्य-कार्य कराया, किन्तु धनश्री विचलित नहीं हुई। विनीतक का मन रखने के लिए धनश्री ने आरक्षी-अधिकारी को अपने अशोकवन में बुलवाया और उसे योगमद्य पिलाकर बेहोश कर दिया, फिर विनीतक के समक्ष ही धनश्री ने आरक्षी-अधिकारी की गरदन उसकी ही तलवार से काट डाली। धनश्री के इस प्रकार की चारित्रिक दृढता देखकर समुद्रदत्त का नारीविद्वेषमूलक हीन संस्कार सहसा तिरोहित हो गया और वह उसके साथ गार्हस्थ्य-जीवन बिताने लगा।
___ इस कथा के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के प्रसंगों से कथाकार ने यह स्पष्ट किया है कि तत्कालीन समाज में केवल चरित्रहीन स्त्रियाँ ही नहीं होती थीं, अपितु अपने चरित्रोत्कर्ष से चमत्कृत करनेवाली नारियों की भी कमी नहीं थी। पुनः इस कथा से आरक्षी अधिकारियों के चारित्रिक दुर्बलतावश विनाश को प्राप्त होने का भी संकेत मिलता है। स्त्रियों के चरित्रोत्कर्ष के चित्रण के क्रम में कथाकार ने राजगृह-निवासी ऋषभदत्त इभ्य की पत्नी धारिणी को 'शीलालंकारधारिणी' (कथोत्पति : पृ. २) विशेषण से विभूषित किया है।
स्त्रियों के चरित्र पर अविश्वास के और भी दो-एक प्रसंग द्रष्टव्य हैं। चारुदत्त की आत्मकथा (गन्धर्वदत्तालम्भ: पृ. १३६) में सन्निविष्ट अमितगति विद्याधर के प्रसंग में, पुलिन पर उभरे पदचिह्नों को देखकर चारुदत्त के मित्र गोमुख आदि अपने-अपने अनुमान और कल्पना के आधार पर विद्याधर और विद्याधरी की अद्भुत कथा गढ़ते हैं। उसी क्रम में गोमुख कहता है : “विद्याधर की प्रेयसी (सुकुमारिका) मनुष्ययोनि की है। वह उसे कन्धे पर लेकर रमणीय स्थानों में संचरण करता है।” हरिसिंह ने पूछा : “यदि वह प्रिया है, तो विद्याधर उसे भी विद्या क्यों नहीं सिखा देता?" गोमुख बोला : “वह विद्याधर मत्सरी और शंकालु है। सोचता है, विद्या सीखकर विद्याधरी बनी हुई प्रिया कहीं स्वैरिणी न हो जाय, इसीलिए विद्या नहीं सिखाता है।" इस वार्तालाप से यह स्पष्ट संकेतित होता है कि विद्याबल-सम्पन्न विद्याधरियों का चरित्र विश्वसनीय नहीं होता था और वे कामाचार में स्वच्छन्द हुआ करती थीं।
इसी क्रम में अमितगति की उक्त पली सुकुमारिका का एक अन्य प्रसंग (तत्रैव : पृ. १३९) भी ध्यातव्य है। जैसा पहले कहा गया, अमितगति को सुकुमारिका पर विश्वास नहीं था। वह सुकुमारिका को आकाशगमन की विद्या इस भय से नहीं सिखा रहा था कि कहीं वह स्वच्छन्दचारिणी न हो जाय। इसका एक प्रत्यक्ष कारण भी था। अमितगति की उपस्थिति में, उसका पहले का मित्र और बाद का प्रतिनायक धूमसिंह सुकुमारिका को बहकाता था । यद्यपि, सुकुमारिका अमितगति १. 'डिण्डी' का उल्लेख संस्कृत या प्राकृत-साहित्य में 'वसुदेवहिण्डी' के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
डॉ. भोगीलाल ज. साण्डेसरा ने डॉ. मोतीचन्द्र को लिखा था कि 'वसुदेवहिण्डी' (भावनगर-संस्करण) के मूल पृ.५१ में इस शब्द का सात बार प्रयोग हुआ है और उन्होंने अपने गुजराती-अनुवाद में डिण्डी का अर्थ न्यायाधीश किया है, पर अब वह स्वयं इस अर्थ को ठीक नहीं मानते। डॉ. मोतीचन्द्र ने डिण्डी का अर्थ 'मनचला शौकीन छैला किया है और गुजराती के 'आवारा' अर्थपरक 'डांडा' को 'डिम्डी' से विकसित माना है। -द्र.'चतुर्भाणी' की भूमिका, पृ.६१-६२, बुधस्वामी ने 'डिण्डी' के स्थान पर 'डिण्डिक' का प्रयोग किया है और उसका अर्थ वेतनभोगी शस्त्रधारी आरक्षी के अर्थ में किया है। -द्र.बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, १८.२०२,२०८