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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
में, दलितों को ऊपर उठाने की भावना की जागर्ति के साथ ही दया, मैत्री, सद्भावना, परदुःखकातरता, समानुभूति आदि उत्कृष्ट गुणों का विकास परम आवश्यक है। इस प्रकार, कहना न होगा कि लोकहितचिन्तक कथाकार ने उक्त कथाप्रसंग के माध्यम से अपने सुधी पाठकों को आदर्शपरक सामाजिक भावना का मूल्यवान् और अनुकरणीय सनातन सन्देश दिया है।
संघदासगणी ने सामाजिक जीवन के चित्रण के प्रसंग में स्त्री की चारित्रिक दुर्बलता और यौन उच्छंखलता के अनेक चित्तोद्वेजक चित्र उपन्यस्त किये हैं। धम्मिल्लचरित में तो सोलह ऐसी रतिप्रगल्भा नवयौवना एवं पीनस्तनी विद्याधरियों का उल्लेख हुआ है, जो संगीत, नाट्य-वाद्य, गीत-रचना, माल्य-गुम्फन, देव-शुश्रूषा, शय्या-रचना, आख्यायिका, पुस्तक वाचन, कथाविज्ञान, नाट्यवृत्तविज्ञान, शयनोपचार, विविध व्याख्यान, पत्रच्छेद्य-रचना, उदक-परिकर्म आदि ललितकलाओं में तो कुशल हैं ही, कामपीडिता और सम्भोगातुरा भी हैं। इन सोलह विद्याधरियों में एक, मित्रसेना धम्मिल्ल को अपने साथ और सबका परिचय देती हुई कहती है : “अम्हे विय सव्वाओ नवजोव्वणाओ, ईसीसिसमुभिज्जमाणरोमराईओ, समुण्णमंतथणजुयलाओ, कामरइरसायण-- कंखियाओ अच्छामो” (दम्मिल्लहिण्डी : पृ. ६८-६९)।"
धम्मिल्लहिण्डी के ही अन्तर्गत अगडदत्तचरित की श्यामदत्ता ने अगडदत्त के समक्ष सीधे अपना रति-प्रस्ताव इस प्रकार रखा है : “हं सामदत्ता नाम । दिट्ठो य मया सि बहुसो जोगं करेमाणो, समं च मे हियए पविट्ठो, तप्पभिई च अहं मयणसरपहारदूमियहियया रइं अविंदमाणी असरणा तुमं संरणं पवन्ना (पृ. ३७)।"
धम्मिलहिण्डी की ही प्रसिद्ध धनश्री की कथा (पृ. ५०) में इस बात की चर्चा है कि उज्जयिनी के प्रतापी व्यापारी सागरचन्द्र की पत्नी चन्द्रश्री बड़ी कामदुर्बल थी। सागरचन्द्र परमभागवत और भगवद्गीता के अर्थ का वेत्ता था, इसलिए उसने अपने पुत्र समुद्रदत्त के पाखण्डदृष्टि हो जाने की आशंका से, उसे किसी पाठशाला में न भेजकर, घर में ही परिव्राजक से शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था कर दी। एक दिन समुद्रदत्त पट्टिका (स्लेट) रखने के लिए अपने घर में गया। वहाँ उसने अपनी माँ को परिव्राजक के साथ 'असभ्य आचरण' करते देखा। उसी समय से उसे सम्पूर्ण स्त्रीजाति के प्रति विराग हो आया और उसने विवाह न करने का निश्चय कर लिया। - कथाकार ने दुःशीला चन्द्रश्री के ठीक विपरीत उसकी दृढशीला पतोहू धनश्री का आवर्जक चरित्रांकन किया है। विवाह न करने को दृढसंकल्प समुद्रदत्त को , उसके पिता ने, व्यापार के व्याज से सौराष्ट्र भेज दिया। उसके कुछ मित्र भी साथ गये। सागरचन्द्र ने पहले ही सौराष्ट्र-यात्रा के क्रम में वहाँ के 'धन' नामक व्यापारी की पुत्री धनश्री को कन्याशुल्क देकर अपने पुत्र के लिए वरण कर लिया था। रात में भोजन के बहाने समद्रदत्त के साथ उसके साथी धन सार्थवाह के घर पहुँचे और वहाँ उसका धनश्री के साथ विवाह करा दिया। किन्तु, सुहागरात में ही वह (समुद्रदत्त) अपनी पत्नी को चकमा देकर निकल भागा।
कुछ दिनों बाद, समुद्रदत्त ने अपना नाम विनीतक रख लिया और वेश बदलकर पुनः धनश्री के घर आया और उसने अपनी उद्यानसज्जा. गन्धयक्ति आदि कलाओं की विशेषज्ञता के बल पर धनश्री के पिता को अनुकूलित कर लिया और वह क्रमशः धनश्री का भी विश्वासपात्र बन गया। वह बराबर धनश्री के साथ ही रहने लगा। एक दिन धनश्री अपने छज्जे पर बैठी पान चबा