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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३०१ अवस्थित मंगलावती विजय के नन्दिग्राम की निर्नामिका अपनी छह बहनों के बाद पैदा हुई थी। माता-पिता ने उसका कोई नाम भी नहीं रखा, इसलिए 'निर्नामिका' कहलाने लगी और अपने कर्म से बँधी वह उन छहों विवश आत्माओं के साथ जीवन बिताने लगी। यहाँ तक कि माता-पिता ने निर्नामिका को घर से बाहर निकाल दिया। कथा है कि किसी दिन उत्सव के अवसर पर धनी व्यक्तियों के कुछ बच्चे अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ हाथ में लेकर अपने घर से निकले। उन्हें देखकर निर्नामिका ने अपनी माँ से लडड माँगा और वह उन बच्चों के साथ खेलने का हठ करने लगी। फलत:, रुष्ट होकर माँ ने उसे मारा और यह कहते हुए घर से निकाल दिया कि “तेरे लिए भोजन यहाँ कहाँ ? अम्बरतिलक पर्वत पर चली जा। वहीं फल खाना या मर जाना।" रोती हुई निर्नामिका घर से निकल पड़ी।
निर्नामिका जब अम्बरतिलक पर्वत पर भटक रही थी, तब उसकी मुलाकात युगन्धराचार्य मुनि से हुई। उन्होंने उसे दुःखकातर देखकर समझाया : “निर्नामिके ! तुम तो शुभ-अशुभ सब प्रकार के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अनुभव करती हो; जाड़ा, गरमी, भूख, प्यास सबका प्रतिकार कर सकती हो; सुख से सोती हो, वातयुक्त या निर्वात स्थान में शरण ले सकती हो और
अन्धकार में प्रकाश की सहायता से काम कर सकती हो। किन्तु, नरक या कष्टपूर्ण संसार के निवासियों को ये सब सुविधाएँ नहीं हैं। नरकपाल उन्हें दुःख में डालकर क्रीड़ा करते हैं। वे विवशतावश अनेक दुःख भोगते हुए बहुत समय बिता देते हैं। इसी प्रकार, पशु, पक्षी आदि प्राणी भी अवर्णनीय दुःख भोगते हैं। तुम्हारा दुःख और सुख तो साधारण है। दूसरों की, पूर्वजन्म के पुण्य द्वारा अर्जित समृद्धि को देखकर तुम अपने को दुःखी समझती हो । जो तुमसे भी हीन जीवन बिताते हैं, कारागार में क्लेश पा रहे हैं, दास और भृत्य के रूप में पराधीन रहकर, अनेक शारीरिक यन्त्रणाकारक कामों में नियुक्त होकर कष्ट भोग रहे हैं, उनकी ओर भी तो देखो।” आचार्य की बात सुनकर निर्नामिका ने विनम्र भाव से कहा : “आप जो कह रहे हैं, वह सर्वथा सत्य है (नीलयशालम्भ : पृ. १७२)।” .. उपर्युक्त कथा प्रसंग के पूर्वार्द्ध में लोकचेता कथाकार ने अकिंचन लोकजीवन के भोगे हुए यथार्थ का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमें आज के भारतीय लोकजीवन के कन्याबहुल परिवार की दयनीय स्थिति तथा धनी-गरीब के बीच की भेदक रेखाओं का स्पष्ट अंकन हुआ है। पुन: कथा-सन्दर्भ के उत्तरार्द्ध में आचार्य युगन्धर के द्वारा समाजचिन्तक कथाकार ने समाजवादी दृष्टिकोण से, दुःखी और सुखी आत्माओं का जो विश्लेषण कराया है, वह अपना ध्यातव्य वैशिष्ट्य रखता है। सामाजिक अवधारणा की पहली शर्त यह है कि प्रत्येक प्राणी में पारस्परिक समानुभूति का उदात्तीकरण अनिवार्य होना चाहिए। कोई व्यक्ति अपने को सर्वाधिक दुःखी इसलिए समझता है कि उसके समक्ष अपने से ऊपर के सुविधाभोगी वर्ग का आदर्श रहता है। इसलिए, अपने के सर्वाधिक सुखी समझने का एकमात्र उपाय यही है कि वह अपने से नीचे के वर्ग को दृष्टि से रखे। तभी उसे यह स्पष्ट होगा कि उसके नीचे का वर्ग उससे भी अधिक कष्टमय स्थिति भोग रहा है। सामाजिक प्राणी में जबतक इस प्रकार की परार्थमूलक दृष्टि विकसित नहीं होगी, तबतव वह अपने स्वार्थ की पूर्ति की दिशा में ही निरन्तर अग्रसर होता रहेगा और इस प्रकार बाह सुख-सुविधा की प्राप्ति की मृगमरीचिका में भटकता हुआ वह सच्ची आन्तरिक शान्ति की खोर में बराबर विफल रहेगा। अतएव, ऐसी दुःखदग्ध स्थिति से मुक्ति के लिए प्रत्येक मनुष्य के हृदर