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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
२९९ चारुदत्त ने माँ से कहा : “मुझे लोग अपात्र समझकर मेरी ओर अँगुलियाँ उठायेंगे, मैं यहाँ नहीं रह पाऊँगा। इसलिए, दूर जा रहा हूँ। धन कमाकर वापस आऊँगा। तुम्हारे चरणों की कृपा से अवश्य ही मैं उपार्जन कर लूँगा।" माँ ने कहा : “बेटे ! तुम तो व्यापार-कार्य के कष्ट से अपरिचित हो। विदेश में कैसे बसोगे? इसलिए तुम विदेश मत जाओ। हम दोनों (सास-पतोहू) तुम्हारे निर्वाह की व्यवस्था करती रहेंगी।" माँ के दीन वचन से चारुदत्त का स्वाभिमान जाग उठा : “ऐसा मत कहो माँ, मैं महाप्रतापी भानुसेठ का बेटा इस तरह जीवन-निर्वाह करूँगा? ऐसी बात तुम्हारे मन में भी नहीं आनी चाहिए। मुझे विदा करो।" इस प्रकार, माँ से विदा लेकर चारुदत्त विदेश चला गया।
इस कथा-प्रसंग से यह जानकारी मिलती है कि मनुष्य का उत्थान या पतन उसके कर्म के अधीन है। दुर्व्यसन का त्याग कर पुरुषार्थ के लिए प्रयत्नशील कोई भी सामाजिक सदस्य अपने संकटग्रस्त परिवार का पुनरुद्धार कर सकता है। युगचेता कथाकार ने गरीब माँ-बेटे की, जीवन-निर्वाह-विषयक प्रस्तुत कथा में पुरुषार्थसिद्धि की प्रेरणा के अनुकरणीय आदर्श का विनियोग किया है। साथ ही, समग्र भारतीय समाज के युवकों के लिए यह ध्यातव्य सन्देश दिया है कि दृढ़ संकल्प, अविचल इच्छाशक्ति और प्रबल पुरुषार्थ ही खोई प्रतिष्ठा को वापस दिलाता है।
पुरुषार्थवादी कथाकार संघदासगणी ने युवकों की नैतिक दुर्बलता और मिथ्याचार के भी प्रसंग उपस्थित किये हैं। एक उल्लेख्य प्रसंग (नीलयशालम्भ : पृ. १७४) यह है कि नन्दिग्राम की रहनेवाली निर्नामिका (पूर्वभव की स्वयम्प्रभा) की धाई ने उसके पति ललितांगदेव (वर्तमान भव का वज्रजंघ) का पता लगाने के बाद पति-पत्नी को मिलाने के लिए ललितांगदेव और स्वयम्प्रभा के चित्र तथा उनके पूर्वभव-चरित को कपड़े पर अंकित किया और नन्दिग्राम के राजमार्ग पर उस चित्र को फैलाकर बैठ गई। जो भी चित्रकला-मर्मज्ञ उस चित्र को देखते, हृदय से श्लाघा करते; किन्तु राजा दुर्मर्षण का पुत्र कुमार दुर्दान्त ने, जो चरित्र से दुर्बल और मिथ्याचारी था,,उस चित्र में अंकित स्वयम्प्रभा को देखते ही वासनावश मूर्च्छित होने का स्वांग किया। फिर, क्षणभर में ही आश्वस्त हो उठा। लोगों के पूछने पर उसने बताया, “चित्र देखते ही मुझे जातिस्मरण हो आया कि मैं पूर्वभव में ललितांगदेव था और स्वयम्प्रभा मेरी रानी थी।" किन्तु, पण्डिता धाई जब जाँच के लिए उससे ब्यौरेवार पूछताछ करने लगी, तब उसकी सारी बातें मिथ्या प्रमाणित हुईं। क्योंकि, उस दुर्दान्त ने चित्र में अंकित युगन्धराचार्य साधु को विश्वरति के नाम से स्मरण किया और ईशानकल्प को सौधर्मकल्प कह दिया। फलतः, धाई ने उसे 'उद्भ्रान्त' घोषित कर दिया और उसका व्यंग्यपूर्ण उपहास भी किया, जिसमें उसके मित्रों ने भी साथ दिया। धृष्ट दुर्दान्त वहाँ से भाग निकला। ___ 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्त वर्णनों से माँ-बेटी के आचरण पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। पाँचवें सोमश्रीलम्भ (पृ. १८६) में माँ-बेटी के अद्भुत रहस्यालाप का प्रसंग आया है। चारणयुगल नगर के राजा अयोधन की रानी दिति की पुत्री का नाम सुलसा था। वह परम रूपवती थी। जब उसका स्वयंवर निश्चित हुआ, तब राजा सगर ने अपनी प्रतिहारी मन्दोदरी को स्वयंवर की तिथि की सूचना लेने के निमित्त अयोधन के निकट भेजा। वह दितिदेवी के घर गई। उस समय दितिदेवी