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२९८. वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा राज्य-प्रशासन के अयोग्य पिता महापद्य को उसके पुत्र ने बन्दी बना लिया था और स्वयं वह न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा था (गन्धर्वदत्तालम्भ: प्र. १३१) । इसी प्रसंग में कंस द्वारा पिता उग्रसेन को बन्दी बनाये जाने की कथा भी सन्दर्भित करने योग्य है (देवकीलम्भ : पृ. ३६८)।
'वसुदेवहिण्डी' में माँ-बेटे और माँ-बेटियों के पारस्परिक व्यवहार के और भी अनेक रोचक प्रसंग उपन्यस्त हुए हैं। संघदासगणी कहीं-कहीं कथा के प्रारम्भ में जब भी राजा-रानियों, सेठ-सेठानियों या विद्याधर-विद्याधरियों और उनके पुत्र-पुत्रियों की चर्चा करते हैं, तब पिताओं के नाम पहले लेते हैं, फिर माताओं के नाम । इसके बाद उनके पुत्र-पुत्रियों की चर्चा के क्रम में माताओं से ही सन्ततियों के उत्पन्न होने की चर्चा करते हैं और पिताओं के नाम गौण कर देते हैं। और इसी प्रकार, वे पुत्र या पुत्री का परिचय उसकी माँ के सम्बन्ध से कराते हैं। जैसे, पवनवेग ने अपने परिचय में कहा है कि “इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सुकच्छविजय-स्थित वैताढ्य पर्वत के शुल्कपुर नामक नगर में शुल्कदत्त नाम का राजा रहता है। उसकी पत्नी यशोधरा है और उसी का पुत्र मैं पवनवेग हूँ (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३०)।” पुन: गंगरक्षित अपना परिचय देते हुए कहता है: “राजा एणिकपत्र के प्रधान द्वारपाल का नाम गंगपालित था। उसकी भद्रा नाम की पत्नी से मैं गंगरक्षित पुत्र उत्पन्न हुआ (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २८९)।" इसी प्रकार, सनत्कुमार के परिचय में कथाकार ने कहा है कि “उस समय हस्तिनापुर में राजा अश्वसेन की रानी सहदेवी थी, जिसका पुत्र सनत्कुमार था(मदनवेगालम्भ : पृ. २३३)।” इन उदाहरणों से यह संकेत प्राप्त होता है कि उस युग के परिवार में मातृसत्ता की प्रधानता थी या मातृसत्तात्मक परिवार की भी प्रथा थी। पुत्र और पुत्री अपनी माँ के सम्बन्ध से परिचय देने में ही गौरव का अनुभव करते थे। ब्राह्मण या वैदिक परम्परा में भी शकुन्तला का परिचय महर्षि विश्वामित्र की पुत्री की अपेक्षा मेनका की पुत्री के रूप में ही उपस्थित किया गया है। हालाँकि, परवर्ती काल में इस देश में पितृसत्तात्मक परिवार की ही प्रधानता हुई।
___ 'वसुदेवहिण्डी' में गरीब माँ-बेटे की, जीवन-निर्वाह के क्रम में होनेवाली बातचीत के बड़े मार्मिक प्रसंग (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४४) का उल्लेख हुआ है। चारुदत्त गणिका-प्रसंग के कारण जब निर्धन हो गया और उसके पिता भानुसेठ ने संन्यास ले लिया, तब घर में घुसते ही उसने (चारुदत्त ने) अपनी माँ को दरिद्र वेश में उदास मुँह लिये हुए देखा। वह उसके पैरों पर गिर पड़ा। किन्तु माँ उसे पहचान नहीं सकी। माँ ने जब पूछा, तब उसने अपना नाम बताया। माँ उसे पकड़कर रोने लगी। तभी उसने देखा कि उसकी पत्नी मित्रवती भी उसके पैरों पर गिरकर रो रही है। मित्रवती के कपड़े मलिन पड़ गये थे। चित्र के धुल-पुंछ जाने पर खाली बची दीवार की तरह वह श्रीहीन हो गई थी। चारुदत्त ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा : “रोना व्यर्थ है । अपने कर्म से ही क्लेश पा रही हो।" ___ उसके बाद चारुदत्त की माँ ने बाजार से चुन्नी-खुद्दी लाकर भोजन तैयार किया। भोजन करने के बाद चारुदत्त ने माँ से जब शेष धन के बारे में पूछा, तब उसने बताया कि “गाड़कर रखे गये, व्याज पर लगाये गये तथा विशाल परिजन-परिवार में दिये गये धन का पता मुझे नहीं है। सेठ के संन्यासी हो जाने पर दास-दासियों को दिया गया धन भी नष्ट हो गया। तुम्हारे परिभोग (कामकला की शिक्षा) में सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ समाप्त हो गईं। हम दोनों सास-पतोहू जैसे-तैसे जीवन जी रही हैं !"