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'वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
२९७ द्वारा किये गये आत्महत्या के प्रयासों को अन्त:साक्ष्य के रूप में उपस्थित किया जा सकता है। किन्तु, मुनि की अनुकम्पा या आकाशवाणी के द्वारा आत्मघातियों को इस प्रकार के दुष्कृत्य से रोक देने का उल्लेख संघदासगणी ने किया है (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३४; श्यामा-विजयालम्भ, पृ. ११५)।
संघदासगणी ने माँ-बेटे में या पिता-पुत्र में मात्सर्य-भावना या शत्रुता की भावना का भी उल्लेख किया है। रुक्मिणी का पुत्र प्रद्युम्न अपनी सौतेली माता सत्यभामा के प्रति मात्सर्य-भाव से अभिभूत रहता था। इसके अनेक रोचक उदाहरण 'वसुदेवहिण्डी' के 'पीठिका'-प्रकरण में उपन्यस्त हैं (पृ. ९५) । पिप्पलाद को अपने पिता याज्ञवल्क्य से इतनी शत्रुता हो गई थी कि उसने अपने पिता की जघन्य हत्या कर दी। इसकी मार्मिक कथा (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ.१५२) यह है कि एक दिन पिप्पलाद ने अपने पिता से कहा कि मैं आपको पितृमेधयज्ञ में दीक्षित करूँगा। उसके बाद वह अपने पिता को निर्जन गंगातट पर ले गया और वहाँ उसने उसके हाथ-पाँव बाँधकर कहा : "पिताजी, अपनी जीभ दिखाइए।" पिता ने ज्योंही अपनी जीभ निकली, पिप्पलाद ने फुरती के साथ कैंची से उसे काट दिया। फलत:, याज्ञवल्क्य गूंगा हो गया । उसके बाद पिप्पलाद ने अपने गूंगे पिता के एक-एक कर कान, नाक, होंठ, हाथ, पैर आदि शरीर के सारे अंगों को काटकर और उन्हें क्षार से सिक्त करके आग में होम कर दिया। याज्ञवल्क्य का शेष शरीर जब निश्चेष्ट हो गया, तब उसे उसने गंगा में डाल दिया। जिस भूमि पर उसने पिता के अंगों को काटा, उसे गन्धोदक से धो दिया और यह समाचार फैला दिया कि मेरे पिताजी विमान से स्वर्ग चले गये। इसी प्रकार, पिप्पलाद ने अपनी माँ सुलसा को भी मार डाला। माता-पिता का दोष यही था कि वे दोनों नवजात पिप्पलाद को भाग्य के भरोसे छोड़कर अन्यत्र चले गये थे। नवजात पिप्पलाद को सुलसा की शिष्या नन्दा ने पाला-पोसा था। इसके लिए पिप्पलाद को अवैध सन्तान होने का उपालम्भ झेलना पड़ा था। बात यह थी कि त्रिदण्डी परिव्राजक याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने के कारण व्याकरण और सांख्यशास्त्र की पण्डिता परिव्राजिका सुलसा को शर्त की विवशतावश याज्ञवल्क्य की सेवा स्वीकार करनी पड़ी थी। इसी क्रम में वह गर्भवती हो गई थी।
इस कथा-सन्दर्भ से यह भी स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज के परिव्राजक-वर्ग में कामाचार भी होता था। अथवा, परिव्राजक भी अनल्लंघनीय कामाज्ञा के वशवर्ती हो जाते थे। साथ ही, यह कथा पुत्र की निर्ममता या उसके निष्ठर दुष्कृत्य का अन्यत्रदुर्लभ उदाहरण भी प्रस्तुत करती है।
संघदासगणी ने ऐसे · पुत्रों का भी चरित्र उपस्थित किया है, जो मौका पाकर पिता को चकमा दे देता था और अन्यायी पिता को बन्दी भी बना लेता था। चकमा देनेवाले पुत्रों में कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का नाम सर्वोपरि है। प्रद्युम्न ने अपनी प्रज्ञप्ति-विद्या के बल से जाम्बवती की आकृति को सत्यभामा के रूप में बदलकर कृष्ण के पास भेजा था और कृष्ण ने सचमुच उसे सत्यभामा मानकर ही, हरिनैगमेषी के कथनानुसार, प्रद्युम्नसदृश पुत्रप्राप्ति के लिए, उसके साथ पहले समागम किया था। इतना ही नहीं, प्रद्युम्न ने विद्याबल से विकुर्वित एक भेड़ को ललकार कर उसके द्वारा अपने पितामह वसुदेव को भी आसन से नीचे गिरवा दिया था और स्वयं हँसता हुआ घर के भीतर चला गया था (पीठिका : पृ. ९४) । विष्णुकुमार के आदेशानुसार,