________________
२९६
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा पत्नी यशोमती से पराङ्मुख होकर निरन्तर शास्त्रानुशीलन में संलग्न रहता था। एक दिन उसकी सास, यानी यशोमती की माँ अपनी बेटी से मिलने आई, तो उसकी बेटी ने लज्जानम्रमुखी होकर उससे बताया कि वह लोकधर्मविहित उपभोग-सुख छोड़ और सभी तरह के सुखों से सम्पन्न है। यह सुनकर धम्मिल्ल की सास अत्यन्त क्रुद्ध हो उठी और उसने उसकी माँ सुभद्रा (अपनी समधिन) को बहुत उलटा-सीधा सुनाया। धम्मिल्ल की माँ थरथर काँपती और आँसू बहाती खड़ी रही (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. २८)। इसी प्रकार की स्थिति में चारुस्वामी (चारुदत्त) की माँ और सास के बीच भी झड़प हुई है। बहत्तर कलाओं में पण्डित होकर भी चारुदत्त अपनी पत्नी मित्रवती के शरीर पर लगे अंगराग को परिमर्दित नहीं करता था। इसलिए, मित्रवती ने अपनी माँ से शिकायत कर दी : “तुमने मुछे पिशाच के हाथों सौंपकर कष्ट में डाल दिया है।” यह सुनकर मित्रवती की माँ ने चारुस्वामी की माँ से रोते हुए कहा : “तुमने जान-बूझकर मुझसे वैर सधाया है, इसलिए अपने बेटे का दोष पहले नहीं बताया (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४१)।"
चारुदत्त की आत्मकथा में ही एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख है, जिससे तत्कालीन ननद-भौजाइयों में मनमुटाव रहने का संकेत मिलता है। चारुदत्त की माँ अपने भाई सर्वार्थ के घर गई, तो उसके भाई के द्वारा भोजन के समय रुकने के लिए अनुरोध किये जाने पर भी वह 'मुझे बहुत काम है' कहती हुई अपने घर चल पड़ी। तब उसके भाई ने कहा : “क्यों इस तरह नि:स्नेह हो गई हो? यदि भौजाई से तुम्हारी पटरी नहीं बैठती है, तो मेरी प्रसन्नता के लिए भी रुक जाओ (तत्रैव : पृ. १४०)।"
रुक्मिणी और सत्यभामा के पारस्परिक निर्मम सपत्नीत्व की क्रूर कथा (पीठिका) से स्पष्ट है कि उस युग में सपलियों के बीच भयंकर शीतयुद्ध विभिन्न रूपों में चलता रहता था। सत्यभामा तो रुक्मिणी के प्रति निरन्तर 'सकलुषा' बनी रहती थी। जाम्बवती का पुत्र शाम्ब तो सत्यभामा के पुत्र भानु को बराबर तंग करता, छेड़ता रहता था। इसपर एक बार सत्यभामा अत्यन्त रुष्ट होकर कृष्ण से बोली : “मैं तो अपने बेटों का खिलौना बन गई हूँ, इसलिए मेरा जीवित रहना व्यर्थ है।" यह कहकर वह अपनी जीभ खींचकर आत्महत्या के लिए तैयार हो गई ('अहं पुत्तभंडाण खेल्लावणिया संवुत्ता, किं मे जीविएणं ति जीहं पकड्डिया)। कृष्ण ने बड़ी कठिनाई से उसे रोका और शाम्ब को दण्डित करने की बात से आश्वस्त किया (पीठिका, पृ. १०७)। संघदासगणी के इस वर्णन से यह जान पड़ता है कि उस युग में स्त्रियाँ पारिवारिक उत्पीडन या आत्मपीडन से ऊबने पर जीभ खींचकर आत्महत्या कर लेती थीं।
सोमश्रीलम्भ (पृ. १९१) में कथा है कि हिंसावादी पर्वतक के, जीभ काढ़ लिये जाने की शर्तबन्दी की स्थिति में, अपने पुत्र के प्राणनाश से आतंकित होकर उसकी माँ अहिंसावादी वसु के समीप ही प्राण त्यागने के निमित्त अपनी जीभ खींचने लगी। पर्वतक की माँ (उपाध्यायानी) को मृत्यु से बचाने के लिए वसु ने विवश होकर 'अज' का अर्थ 'बकरा' मान लिया। इस कथाप्रसंग से यह ज्ञात होता है कि उस युग की स्त्रियाँ अपने कदाग्रह को किसी से जबरदस्ती मनवाने के लिए अपनी जीभ काढ़कर मरने को उतारू हो जाती थीं।
'वसुदेवहिण्डी' से यह भी ज्ञात होता है कि निरुपायता की स्थिति में पुरुष भी आत्महत्या के लिए उद्यत हो जाते थे । इस सन्दर्भ में धम्मिल्ल, नन्दिसेना (पूर्वभव के वसुदेव) आदि के