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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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एक दिम, प्रजाजन अन्न न पचने की शिकायत लेकर भगवान् ऋषभदेव के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने प्रजाओं को बताया कि वे हाथों से मसलकर अन्न को भूसा-रहित बनाकर आहार के काम में लाये। फिर कुछ दिनों बाद, प्रजाओं के पूर्ववत् शिकायत करने पर ऋषभदेव ने उन्हें भूसारहित अन को पत्ते के दोनों में भिगोकर और उबालकर खाने का निर्देश दिया। क्रमश: प्रजाओं ने पेड़ों की डालियों के आपस में रगड़ खाने से उत्पन्न आग द्वारा पाककर्म और प्रकाश की व्यवस्था की। भगवान् ऋषभदेव के निर्देशानुसार, प्रजाओं ने पुष्करिणी से गीली मिट्टी का पिण्ड लाकर भौर उसे हाथी के कुम्भस्थल (मस्तिष्कभाग) पर ठोंककर मृण्मय पात्र बनाये। इस प्रकार के पात्रों को आग में पकाकर और उसमें पानी गरम करके, पाकसंस्कारविधि से अन्न पकाने की समस्या हल की गई।
प्रजाजनों की बुद्धि धीरे-धीरे खुलती गई। फिर, उनके बीच कुम्भकार उत्पन्न हुए। लौहकार और स्वर्णकार भी तैयार हुए, जो लोहे, चाँदी और सोने के उपकरण बनाने लगे। वस्त्रवृक्ष (वस्त्र प्राप्त होने के साधन कल्पवृक्ष) के कम हो जाने पर भगवान् ने जुलाहों को उपदेश किया। फलत, उन्होंने वस्त्र बनाने की विधि का आविष्कार किया। गृहाकार कल्पवृक्ष की कमी पड़ने से घर बनाने के काम के लिए बढ़ई तैयार हुए। केश और नाखून बढ़ने से नाई तैयार होने लगे। सामाजिक उपयोग की दृष्टि से ये ही पाँच मूल (कुम्हार, लोहार, सोनार, बुनकर, बढ़ई, और नाई) शिल्प निर्धारित हुए, जिनमें प्रत्येक के बीस भेद किये गये। तृणहारक (घास इत्यादि काटकर बेचनेवाले) आदि के काम भी इन्हीं के द्वारा सम्पन्न होने लगे। इसी प्रकार, आभूषणों का भी आविष्कार हुआ। राजा ऋषभदेव को देवों ने आभूषण पहनाये थे, उसी की देखादेखी लोगों ने भी गहने बनाना शुरू किया।
भगवान् ऋषभदेव ने अपनी गोद में बैठी दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को दायें हाथ से लिपि और बायें हाथ से गणित की शिक्षा दी। अपने प्रथम पुत्र भरत के लिए उन्होंने रूपक (नाट्यशास्त्र) का उपदेश किया और द्वितीय पुत्र बाहुबली को चित्रकर्म (चित्रकला) एवं स्त्री-पुरुष
आदि के लक्षणों के निर्देशक शास्त्र की शिक्षा दी। उन्होंने अनुक्रम से अपने कुमारों को मणि, रत्न, मौक्तिक आदि के आभूषणों के निर्माण की कला बताई । वाणिज्य, रोग-चिकित्सा तथा रुग्ण चित्त के प्रतिकार की विद्या का भी ज्ञान कराया। इस प्रकार, विभिन्न कलाओं की दृष्टि से विकसित ग्रामसमूह और नगरों से मण्डित भारतवर्ष में भगवान् ऋषभदेव ने तिरसठ लाख पूर्व तक राज्य किया।
ऋषभदेवकालीन इसी आदिम समाज का विकास-विस्तार उनके प्रथम पुत्र भरत के राज्य में हुआ और उनके नाम पर ही इस देश को भारत या भारतवर्ष कहा जाने लगा। संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में इसी भारत के लोकजीवन या सामाजिक जीवन के विविध चित्रों का अंकन किया है, जिनमें कतिपय चित्र अपनी विचित्रता, रोचकता, रंजकता और रुचिरता के साथ ही सामाजिक मनोविश्लेषण की दृष्टि से भी अतिशय महत्त्वपूर्ण हैं।
(क) सामान्य सामाजिक जीवन संघदासगणी द्वारा चित्रित समाज के पारिवारिक जीवन में समधिनें आपस में उलाहना देती और झगड़ती थीं और ननद-भौजाइयों में मनमुटाव चलता था। धम्मिल्ल अपनी लक्ष्मीस्वरूपा