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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा - इस प्रकार, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में नृत्य, नाट्य और वाद्य-संगीत के विविध तत्त्वों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ समाविष्ट किया है। साथ ही, उन्होंने संगीत, नृत्य और चित्रकलाओं का प्राय: समेकित रूप में ही उल्लेख किया है : “रमामि हं गंधव्वे नट्टे आलेक्खे च" (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४१)। इससे स्पष्ट है कि उस महान् कथाकार ने भारतीय ललितकलाओं का गम्भीर और समग्रात्मक अनुशीलन किया होगा, साथ ही वह वैदिक (सामवैदिक) और वैदिकोत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीतकला के शास्त्रकारों की संगीतविद्याओं के बहुश्रुत अधीती रहे होंगे। भरतमुनि ने नारद को वाद्य-संगीत का प्रामाणिक शास्त्रकार माना है। तदनुसार, संघदासगणी ने भी नारद
और तुम्बुरु को विष्णुगीत का आविष्कर्ता माना है और लिखा है कि उन्हीं दोनों संगीतकारों से विद्याधरों को प्राप्त संगीतशिक्षा का इस मर्त्यभूमि पर प्रचार-प्रसार हुआ।
द्यूतकला :
प्राचीन भारतीय कला-चिन्ता में छूतकला को भी बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। जैनागमोक्त बहत्तर कलाओं में द्यूतकला को भी परिगणित किया गया है। बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर' की कलासूची में भी अक्षक्रीड़ा का उल्लेख है। वात्स्यायन के 'कामशास्त्र' तथा 'शुक्रनीतिसार' की कलासूचियों में भी द्यूतक्रीड़ा की गणना हुई है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में द्यूतकला का व्यापक प्रचार था। महाभारत-युद्ध का मूल कारण द्यूत ही था। महाभारतेतर प्राचीन ग्रन्थों में भी द्यूत का विशद वर्णन उपलब्ध होता है। ‘मृच्छकटिक' और 'चतुर्भाणी' के साक्ष्य के अनुसार यह ज्ञात होता है कि वेश्या और मद्यपान के साथ-साथ द्यूतक्रीड़ा भी उस युग के आमोद-प्रमोद का मुख्य साधन थी।
_ 'वसुदेवहिण्डी' में भी अनेक स्थलों पर छूत का अद्भुत वर्णन किया गया है । 'वसुदेवहिण्डी' के चरितनायक स्वयं वसुदेव उत्तम श्रेणी के द्यूतकला-विशेषज्ञ थे। पन्द्रहवें वेगवतीलम्भ (पृ. २४७) में राजगृह की द्यूतसभा का उल्लेख है । वहाँ बड़े-बड़े धनी, अमात्य, सेठ, सार्थवाह, पुरोहित, तलवर (नगरपाल) और दण्डनायक मणि और सुवर्ण की राशियों को दाँव पर लगाकर जूआ खेलते थे। द्यूतसभा के सदस्यों ने जब वसुदेव से पूछा कि यहाँ इभ्यपुत्र अपने-अपने धन से खेलते हैं, तुम कैसे खेलोगे, तब वसुदेव ने अपनी हीरे की अंगूठी दिखाई, जिसका मूल्य वहाँ उपस्थित एक रत्नपरीक्षक ने एक लाख आँका। इस द्यूतसभा के अनुसार, एक लाख मूल्य की मणि की राशि निम्न कोटि की बाजी मानी जाती थी; बत्तीस, चालीस और पचास लाख की बाजी मध्यम कोटि की होती थी और अस्सी-नब्बे करोड़ का दाँव उत्तम कोटि का कहलाता था। पाँच सौ की बाजी तो अत्यन्त निकृष्ट कोटि की समझी जाती थी। हारने पर जुआड़ी दूनी-तिगुनी राशि दाँव पर लगाते चले जाते थे। वसुदेव लगातार जीतते ही चले गये। उन्होंने जब हिसाब करने को कहा, तब द्यूतसभा के अनुसार वसुदेव द्वारा जीती गई राशि एक करोड़ की निकली। किन्तु वसुदेव ने अपनी जीती हुई राशी को, द्यूतशाला के अधिकारी को बुलाकर, गरीबों में बाँट देने को कहा।
१. गान्धवमेतत् कथितं मया हि पूर्व यदुक्तं त्विह नारदेन । कुर्याद्य एवं मनुजः प्रयोगं सम्मानमग्रयं कुशलेषु गच्छेत् ॥
- ना.शा.:३२.४८४