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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा मृगशावक को देखकर उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। तब उसके मन में यह बात आई कि ओह ! बलवान् पुरुष कपटी और अकृतज्ञ होते हैं। तभी तो मृग ने मुझे पहले प्रलोभन दिया, बाद में व्याधों से घिरे जंगल में छोड़कर चला गया। उसी समय से वह पुरुष से द्वेष करने लगी । अन्त में, वसुदेव ने चीवर- चित्र द्वारा उसके हृदय को परिवर्तित कर उसे पुरुषप्रेमी बना दिया । २८० इस प्रकार, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में गणिकाओं के माध्यम से ललितकला के अनेक आयामों का प्रस्तवन किया है और इसी व्याज से उन्होंने पूरा गणिकाशास्त्र ही उपस्थापित कर दिया है, जिसमें गणिका के मनोवैज्ञानिक भावों के साथ ही उसके शुभाशुभ पक्षों पर भी विशदतापूर्वक प्रामाणिकता के साथ प्रकाश-निक्षेप किया है। आधुनिक युग में भी कलाचार्या गणिकाओं की अपनी विशिष्ट परम्परा रही है । 'हिन्दी - साहित्य और बिहार' ग्रन्थमाला के प्रथितयशा सम्पादक तथा बिहार-राष्ट्रभाषा परिषद् के आद्य निदेशक, प्रसिद्ध हिन्दी - महारथी पुण्यश्लोक आचार्य शिवपूजन सहाय, जो हिन्दी कविता में छायावाद के प्रवर्त्तक काशीवासी महाकवि जयशंकर 'प्रसाद' की साहित्य-गोष्ठी की विभूति थे, काशी की दो कला-पण्डिता गणिकाओं, 'विद्याधरी' और 'जवाहरी' की चर्चा प्रसंगवश किया करते थे । विद्याधरी अद्वितीय संगीत - सुन्दरी थी और जवाहरी संस्कृत में गीतिकाव्य के प्रवर्तक कवि जयदेव के 'गीतगोविन्द' के कोमलकान्त संस्कृत-पदों को राग-रागिनियों में आबद्ध करके संगीतमुखर बनाने की कला में बेजोड़ थी । भरत के अनुसार (नाट्यशास्त्र, ३५.६०-६२), गणिका का पद काफी ऊँचा होता था । उसमें लीला, हाव-भाव, सत्य, विनय और माधुर्य का अपूर्व सम्मिश्रण होता था। चौंसठ कलाओं में उसकी प्रवृत्ति होती थी । वह राजोपचार में कुशल होती थी तथा स्त्रीसुलभ दोष भी उसमें होते थे। वह मृदुभाषिणी, चतुर और परिश्रमी होती थी । संघदासगणी ने यथाशास्त्र गोष्ठी, राजमहल और वेश्यालय (वेश) में रहनेवाली विभिन्न प्रकार की गणिकाओं के भव्य और उद्दाम चित्र अंकित किये हैं । कहना न होगा कि आचार्य संघदासगणी ने गणिका - जीवन के कलाभ्युदय, मनोविनोद और शृंगार- चेष्टाओं की ज्वलन्त छवि देश-काल-पात्रोचित सटीक शब्दावली में रूपायित है I नृत्य-नाट्य संघदासगणी ने गणिकाओं की नृत्यकला के अतिरिक्त, गणिकेतर सुन्दरियों की रमणीय नृत्यविधि का भी उल्लेख किया है । तीसरे गन्धर्वदत्तालम्भ (पृ. १५५ ) में उन्होंने रूपवती मातंगदारिका के हृदयहारी नृत्य का अंकन किया है। मातंगदारिका रंग में सजल मेघ की तरह साँवली थी और रूप में भूषण से अलंकृत होने के कारण, तारों से जगमगाती रजनी की तरह लगती थी । उसे सौम्यरूपवाली और अनेक मातंगदीरिकाओं ने घेर रखा था ("दिट्ठा य मया कण्णा कालिगा मायंगी जलदागमसम्मुच्छिया विव मेघरासी, भूसणपहाणुरंजियसरीरा सणक्खत्ता विय सव्वरी, मायंगदारियाहिं सोमरूवाहिं परिविया । ") चम्पापुरी के 'सुरवन' के निकट पुराकालीन महासरोवर के तट पर, नृत्योपहार से महासरोवर की सेवा के निमित्त, सखियों के आग्रह से, वह मातंगदारिका नृत्य करने के लिए उठ खड़ी हुई और अपनी दन्तकान्ति को चाँदनी की तरह छिटकाती हुई, कुसुमित अशोकवृक्ष से लिपटी और मन्द मन्द हवा से कम्पित लता की भाँति नाचने लगी । भ्रमरी की तरह बैठी हुई उसकी सखियाँ
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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