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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
था । और, कामपताका की प्राप्ति की उपायसिद्धि के लिए युवराज चारुचन्द्र ने भी जिनोत्सव आयोजित किया था। युवराज चारुचन्द्र को कामपताका की प्राप्ति में उक्त धार्मिक सहधर्मिता ही विशिष्ट कारण हुई। राजपरिवार का एक मूल्यवान् अंग हो जाने के बाद कामपताका की माँ अनंगसेना ने राजा से सारी वस्तुस्थिति कहकर दास दुर्मुख को उसकी धृष्टता के लिए वधा दण्ड दिलवाया।
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यज्ञोत्सव में रंगमंच पर कामपताकां को नाचते देखकर शुनकच्छेद उपाध्याय भी कामशर से आहत हो गये थे । कामपताका के विना वह प्राण तक छोड़ने को तैयार थे । उपाध्याय की प्राणरक्षा के लिए तपस्वियों के निवेदन करने पर भी राजा ने अपनी विवशता प्रकट की; क्योंकि वे कामपताका को कुमार चारुचन्द्र के जिम्मे सौंप चुके थे ।
कुल मिलाकर, इस कथा - सन्दर्भ से यह स्पष्ट होता है कि वेश्याएँ गणिका - वृत्ति और धार्मिकता के अद्भुत समन्वय की कलापुत्तलिकाएँ होती थीं । समृद्ध गणिकाओं में धार्मिक कृत्यों के प्रति आग्रह का समर्थन वात्स्यायन ने भी किया है। अनंगसेना जैसी गणिका का चरित्र तो अद्भुत है कि एक ओर वह श्राविका है, दूसरी ओर दुर्मुख को क्षमादान न दिलवाकर अपनी प्रतिक्रिया की तृप्ति के लिए वध का दण्ड दिलवाती है। इस प्रकार, संघदासगणी ने इस बात की ओर संकेत किया है कि गणिकाएँ यौनदृष्टि से कभी विश्वसनीय नहीं होतीं। उनकी धार्मिकता भी प्रायः स्वार्थ की पूर्ति का आवरण बनती है। किन्तु, उनकी कलावर्चस्विता के समक्ष संघदासगणी नतमस्तक हैं, साथ ही वह जिनमहिमा की अमोघता भी सिद्ध करना चाहते हैं, और फिर, कथारस का विघात न हो, इसके लिए कथा का रोमान्तिक आस्वाद 'बनाये रखना चाहते हैं। उनका कथाकार कथा के माध्यम से प्रवृत्तिमार्ग को निवृत्तिमार्ग से जोड़ना चाहता है, इसलिए प्रवृत्ति के मूल रसों का उद्भावन वह समीचीनता और आनुक्रमिकता के साथ करते हुए निवृत्तिमार्ग ( क्षायोपशम) तक पहुँचते हैं । यही उनके कथाकार की कथा-प्रक्रिया का ध्यातव्य वैशिष्ट्य है ।
पूर्वभव का ज्ञान रखनेवाली शास्त्रज्ञ गणिका ललितश्री (जो बाद में वसुदेव की स्वामिनी बनी) का परिचय देते हुए परिव्राजक सुमित्र ने, भिक्षुक - धर्म (स्त्री की प्रशंसा न करना) के विरुद्ध, बात स्वयं वसुदेव से कही है (ललित श्रीलम्भ: पृ. ३६१-३६२) : “ललितश्री (या सोमयशा) नाम की एक गणिकापुत्री है। वह सर्वांगतः प्रशस्य कन्यालक्षणों से युक्त है । उसकी मृदुल, मित और मधुर वाणी श्रवण और मन को हर लेती है । अपनी ललित गति से वह हंस का अनुसरण करती है, वह कुलवधू के वेश में रहती है और शास्त्रीय बातों में सुन्दर और तीखी युक्ति उपस्थित करनेवाली होने के साथ ही वह लोकसेविका भी है। शास्त्रकार कहते हैं कि वह रानी होने के योग्य है । " किन्तु, यह सब कुछ होते हुए उस यौवनवती कलाविदुषी ("जोव्वणवती कलासु य सकण्णा"; तत्रैव, पृ. ३६२) को पुरुष से द्वेष हो गया था ।
पुरुषद्वेष के कारण के स्पष्टीकरण के लिए ललितश्री ने अपने पूर्वभव की कथा सुमित्र परिव्राजक से कह सुनाई थी, जिसे उसने पहले किसी योगी या गुरु से भी नहीं कही थी। पिछले जन्म में वह मृगी थी । वह सोने की पीठवाले (कणयपट्ठ: कनकपृष्ठ) मृग की प्रिया थी । एक बार व्याधों ने मृगयूथ पर आक्रमण कर दिया । कनकपृष्ठ मृग उस मृगी को छोड़कर भाग गया । निर्दय व्याधों ने गर्भ-भरालसा मृगी को पकड़ लिया और तीर से बेधकर मार डाला। उसके बाद उसने ललितश्री के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया। बचपन में राजा के आँगन में खेलते समय,