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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२८१ श्रुतिमधुर गीत गाने लगीं। चाण्डालकन्या नृत्य के क्रम में जब अपनी उज्ज्वल आँखों का संचार करती, तब दिशाएँ जैसे कुमुदमय हो जाती । रक्ततल हाथों की भंगिमा तो साक्षात् कमलपुष्प की कान्ति बिखेरती और जब वह क्रम से अपने पैरों को उठाकर नाचती, तब उत्तम सारस की भाँति उसकी शोभा मोहक हो उठती।
वसुदेव मातंगकन्या का.शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल ('समयं अमुचमाणी') नृत्यशिक्षा का प्रदर्शन देखकर इतना मुग्ध हुए कि बगल में बैठी अपनी कलाविदुषी नवविवाहिता गन्धर्वदत्ता को भूल गये । बीच में उसने उनसे कुछ पूछा, तो नृत्यगीत के शब्द-झंकार में उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। यह मातंगकन्या नीलयशा थी, जो आगे चलकर वसुदेव की चौथी पत्नी बनी।
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' के 'पीठिका'-प्रकरण (पृ. १०१) में, रत्नकरण्डक उद्यान में, गणिकापुत्रियाँ सुहिरण्या और हिरण्या के नृत्य-प्रदर्शन के प्रसंग में बत्तीस प्रकार के नृत्यों का संकेत किया है। इस नृत्य-प्रदर्शन में कृष्णपुत्र शाम्ब प्रधान मध्यस्थ थे। सभी लोग उद्यान में गये । नृत्यसभा में नृत्यविशेषज्ञ अपने-अपने आसनों पर बैठे । वहाँ पहले हिरण्या ने प्रदर्शन-योग्य सभी नृत्यविधियाँ प्रस्तुत की। इनमें एक विशिष्ट नृत्य था— 'नालिकागलकनृत्य' । नालिका-विशेष से पानी चूने तक की अवधि के भीतर यह नृत्य सम्पन्न किया जाता था। हिरण्या के नृत्य की समाप्ति के बाद नालिका में फिर से पानी भर दिया गया और तब सुहिरण्या ने नृत्य का प्रदर्शन प्रारम्भ किया। उसने विधिपूर्वक बत्तीस प्रकार के नृत्य दिखलाये। उसके बाद नृत्याचार्य ने नालिका के अवशिष्ट जल से सुहिरण्या को स्नान कराया। कुमार शाम्ब ने अभिषेक की गई लक्ष्मी की तरह सुशोभित सुहिरण्या को देखा। रति ने जिस प्रकार काम को देखा था, ठीक उसी प्रकार सुहिरण्या ने भी शाम्ब को सादर देखा। __संघदासगणी ने लिखा है कि इस नृत्य को देखने के लिए इतनी भीड़ उमड़ी थी कि दर्शकों को आपस में धक्के खाने पड़ते थे। तभी तो जयसेन के कहने पर बुद्धिसेन खिसक कर उसके पास चला आया था; क्योंकि अपनी पहली जगह पर उसे दर्शक धकिया रहे थे। (“एए ममं पेच्छगा पेल्लंति)।
भारतीय कला-चिन्तन में नृत्यकला के अन्तर्गत अभिनय (नाट्य) का अत्यन्त शास्त्रीय विश्लेषण किया गया है। सामान्य अभिनय के चार अंग माने गये हैं: आंगिक, वाचिक, आहार्य
और सात्त्विक। इतना ही नहीं, इनके कुछ अंगों के अवान्तर भेद भी प्रस्तुत किये गये हैं। संघदासगणी ने भी नृत्य, वाद्य, संगीत और अभिनय से संवलित नाटकों की चर्चा की है । वसुदेव जब प्रियंगुसुन्दरी के घर में अपना प्रवासी जीवन बिता रहे थे, तभी बहुरूप नाम का नट अपने परिवार के साथ आया और वसुदेव के आवासीय प्रांगण में पुरुहूत और वासव से सम्बद्ध परदार-धर्षण-विषयक नाटक का प्रदर्शन करने लगा (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९०)। पुरुहूत और वासव के सम्बद्ध उक्त नाटक में परस्त्री-संग के दोष से वासव की मृत्यु का प्रदर्शन किया गया था। संक्षेप में, कथा यह है कि वैताढ्यपर्वत की दक्षिणश्रेणी-स्थित रत्नसंचयपुर में इन्द्रकेतु नामक विद्याधरनरेश के दो पुत्र थे- पुरुहूत और वासव। वासव स्त्री-लोलुप था। वह गौतम ऋषि के परोक्ष में उनकी पत्नी (विष्टाश्रव और मेनका की पुत्री) अहल्या के साथ सम्भोग करता। एक बार जब वह सम्भोगरत था, तभी गौतम ऋषि फल-फूल और समिधा लेकर वापस आये।