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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ उसके बाद मुरगों की लड़ाई शुरू हुई। एक लाख की बाजी रखी गई थी। वीणादत्त ने रंगपताका के मुरगे को ललकारा और रतिसेना के मुरगे से लड़वाना शुरू किया। रतिसेना का मुरगा मात खा गया और रतिसेना एक लाख की बाजी हार गई। तब, उसने दसगुनी, यानी दस लाख रुपये की, बाजी लगाई। दूसरी पाली में गंगरक्षित ने रतिसेना के मुरगे का पक्ष लिया और उसे ललकारा। दूसरी बार मुरगों की लड़ाई शुरू हुई। इस बार रतिसेना ने बाजी जीत ली। गंगरक्षित रतिसेना के घर में ही रह गया। दूसरे दिन, ओढ़े हुए कपड़े में अपना हाथ छिपाये हुई एक दासी एक सौ आठ दीनार दिखलाती हुई गंगरक्षित से बोली : “रतिसेना दे रही है।" इस प्रकार, सुखपूर्वक गंगरक्षित का समय बीतने लगा। गणिकागृह में रहते हुए कितना समय बीत गया, यह उसने नहीं जाना । एक दिन गणिका के परिजन ने करुण रुदन करना शुरू किया। “यह क्या बात है?" ऐसा बोलता हुआ गंगरक्षित सहसा उठा और सुना कि उसके पिता मर गये ! वह शोकाभिभूत हो उठा और तुरत ही अपने घर लौट आया।
इसी प्रकार, जम्बूद्वीप-स्थित पूर्वविदेह-क्षेत्र के पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा घनरथ के दरबार में सुसेना (सुषेणा) नाम की गणिका शास्त्रार्थ की इच्छा से कुक्कुट की युद्ध-प्रतियोगिता के लिए आई थी। उसके कुक्कुट ने घनरथ की रानी मनोहरी के वज्रतुण्ड नामक कुक्कुट से युद्ध किया था। इसके लिए दोनों पक्षों की ओर से एक लाख की बाजी रखी गई थी (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३३)।
उक्त कथाप्रसंगों से यह ज्ञात होता है कि गणिकाएँ सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन करने में सहज अभिरुचि रखती थीं और इस प्रकार के आयोजनों में अपनी स्पृहणीय धनाढ्यता प्रदर्शित करती थीं और रानियों से भी होड़ लेने को तैयार रहती थीं। इसके अतिरिक्त, अपने आमन्त्रितों के प्रति सामान्य शिष्टाचार का पालन तो करती ही थीं, अपने प्रति किये गये उपकार का आर्थिक मूल्य भी चुकाती थीं। साथ ही, आमन्त्रित अतिथि के शोक में सहानुभूति प्रदर्शित करके, अपनी सहज मानव-भावना का भी परिचय प्रस्तुत करती थीं।
इसी प्रकार, वसुदेव जब अपनी भावी गणिका-पत्नी ललितश्री के घर गये, तब उसने उनका अर्घ्य से सम्मान किया। कुतूहल से भरी हुई कुछ गणिकाएँ वहाँ आ गईं। उन्होंने ललितश्री का अभिप्राय जानकर वसुदेव का शृंगार किया। फिर, “फल चाहनेवाले को विशेष रस की भी प्राप्ति होती है", इस प्रकार बोलते हुए उन्होंने ललितश्री के साथ वसुदेव को भी स्नान कराया। फिर, वे मंगलाचार के साथ वसुदेव को ललितश्री के वासगृह (शयनकक्ष) में ले गईं। वहाँ मोती की झालरें लटकाई गई थीं, शयनगृह की भूमि पर सुगन्धित फूल बिखेरे गये थे। घ्राण के अनुकूल धूप से वासगृह सुरभि-मुखर हो रहा था। वहाँ वसुदेव स्वच्छन्द भाव से पाँच प्रकार के (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द) विषय-सुखों को भोगते हुए प्रसन्नतापूर्वक विहार करते रहे (ललितश्रीलम्भ : पृ. ३६३)।
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि गणिकाओं की शिष्टता में मोहक सौन्दर्य का अभिनिवेश अतिशय प्रबल रहता था। रति-महोत्सव के अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायिका गणिकाएँ अपने कला-कौशल का भरपूर प्रदर्शन करती थीं। वेश्यागृह में मण्डन-कला का उत्कर्ष अपनी चरम सीमा पर रहता था। गणिकाएँ जब एकचारिणी हो जाती थीं, तब अपने अनुकूल पुरुष को कामकला से कृतार्थ कर देती थीं।