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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा दुःखपूर्ण शिकार बने हैं। और, दोनों को मोह-मरीचिका में डालनेवाली गणिकाओं के नाम भी एक ही हैं। ध्यातव्य है कि संघदासगणी के कथाग्रन्थ में, भिन्न कथाप्रसंगों में भी एक ही नाम के कई पात्र-पात्री पुनरावृत्त हैं।
उपर्युक्त कथाप्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि गणिकाएँ रथ पर चलती थीं और अग्रगणिकाएँ या प्रधान गणिकाएँ या महागणिकाएँ प्रायः अनेक वा युवतियों से घिरी रहती थीं। ये ललित कला की आचार्या होने के कारण दक्षिणा में विपुल राशि वसूल करती थीं। कुल मिलाकर, गणिकाएँ परमाद्भुत चरित्रवाली होती थीं। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी" में वेश्याजनसुलभ कलासाधना और अर्थसाधना का जैसा सामंजस्य परिलक्षित होता है, वैसा अन्यत्र प्रायोदुर्लभ है।
'वसुदेवहिण्डी' से ज्ञात होता है कि गणिकाएँ बड़ी धूर्त होती थीं और अपनी पुत्रियों को निर्धन पुरुषों के साथ प्रेमासक्त जानकर, उन अभागों को बड़े छल-छद्म से निष्कासित कर देती थीं। वसन्तसेना इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने जब धम्मिल्ल के प्रति वसन्ततिलका को आसक्त जान लिया, तब एक उत्सव का आयोजन किया और उसी में खान-पान के बहाने धम्मिल्ल को बहुत अधिक मदिरा पिलाकर बेहोश कर दिया और उसे एकवस्त्र स्थिति में नगर के बाहर थोड़ी दूर पर फेंकवा दिया।
'वसुदेवहिण्डी' से वेश्याओं के सिद्धान्त और वेश्यालय की तहजीब पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। चारुस्वामी या चारुदत्त जब अर्थहीन हो गया, तब वसन्ततिलका की माँ ने उसे पहले तो योगमद्य पिलवाया, फिर बेहोशी की हालत में उसे भूतघर में डलवा दिया।
वसन्ततिलका को जब अपनी माँ के इस दुष्कृत्य का पता चला, तब उसने अपनी वेणी बाँधकर प्रतिज्ञा की कि चारुदत्त ही आकर इसे खोलेगा। इसी क्रम में, वसन्ततिलका राजा की सेवा से, उचित शुल्क चुकाकर, मुक्त हो गई (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५४)। इससे स्पष्ट है कि वेश्याएँ सिद्धान्तवादिनी होती थीं और विहित शुल्क (निष्क्रय) देकर राजा की सेवा से मुक्ति पा लेती थीं (“दिण्णो निक्कओ रण्णो, राइणा य मोइयं गिहं") और अपने मनोनुकूल गृहस्थ-जीवन बिताती थीं। धम्मिल्ल की प्रेमिका गणिका वसन्ततिलका की कथा भी प्रायः चारुदत्त की प्रेमिका वसन्ततिलका के ही समानान्तर है। . 'वसुदेवहिण्डी' के गंगरक्षित-वृत्तान्त से वेश्याओं की सांस्कृतिक अभिरुचि और वेश्यालय की शिष्टता का अनुमान होता है। गंगरक्षित ने वसुदेव से अपनी कहानी सुनाते हुए कहा था कि एक दिन वह अपने प्रियमित्र वीणादत्त के साथ श्रावस्ती के चौक में बैठा था ('सावत्थीचउक्कम्मि
आसहे. प्रियंगसन्दरीलम्भ : प. २८९)। उसी समय रंगपताका नाम की गणिका की दासी ने वीणादत्त को बुलाया और उससे कहा कि मेरी स्वामिनी रंगपताका और रतिसेनिका के मुरगों की लड़ाई (युद्ध-प्रतियोगिता आयोजित की गई है, इसलिए साक्षी (मध्यस्थ) के रूप में आप उसमें सम्मिलित होने के लिए शीघ्र आयें। इसके बाद उस दासी की नजर गंगरक्षित पर पड़ी और प्रश्नात्मक स्वर में बोली: “उत्सवों से दूर रहनेवाला यह गणिकाओं के रसविशेष को जानता है ?" (“एसो गणियाणं रसविसेसं जाणइ?") उसकी चिढ़ानेवाली बात से गंगरक्षित सहसा जल उठा
और वीणादत्त के साथ वेश्यालय में चला गया। वहाँ बैठने के लिए उन्हें आसन दिया गया, फिर व और माला से उन दोनों का सम्मान किया गया।
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