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प्राकृत-कथासाहित्य में वसुदेवहिण्डी' का स्थान लिया है। जैसे, महावीर, बुद्ध, कबीर, नानक आदि ने यही किया है। फर्क यही है कि इन मानववादियों ने धर्म के विवेचन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और स्वतन्त्र चिन्तन से काम लिया है। 'पउमचरियं' में विमलसूरि ने भी इसी वैचारिक आयाम को पल्लवित किया है।
आचार्य नलिनजी ने अपने क्रोशशिला-संस्थापक ग्रन्थ 'साहित्य का इतिहास-दर्शन' के 'हिन्दी-साहित्य की महान् परम्परा' शीर्षक पन्द्रहवें अध्याय में 'परम्परा' का बड़ा ही प्रांजल सैद्धान्तिक विवेचन किया है। उसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ प्राकृत-साहित्य की काव्यदृष्टिवादी परम्परा का विश्लेषण अपेक्षित है। प्राकृत का कथा-साहित्य बड़ा विशाल है और श्रमण-परम्परा के कथालेखकों ने धर्म और दर्शन, आचार और विचारों की कथा के माध्यम से, सरस अभिव्यंजना करने में चूडान्त कौशल और वैदुष्य का परिचय दिया है। आगमिक कथा-परम्परा या भारतीय प्राचीन कथा-परम्परा के विकास में उन्होंने जो श्रम-साधना प्रदर्शित की है, वह एक साथ विस्मित और आह्लादित करती है।
न केवल प्राकृत-कथा की, अपितु समस्त कथासाहित्य की परम्परा, प्राचीन काल से आधुनिक काल तक, अविच्छिन्न रहते हुए भी क्रमागत नहीं है । क्योंकि, क्रमागत परम्परा केवल चर्वितचर्वण या पिष्टपेषण नहीं हुआ करती । क्रमागत परम्परा के विश्लेषण-क्रम में आचार्य नलिनजी ने प्रसिद्ध पाश्चात्य कविर्मनाषी टी. एस. इलियट का कथन उद्धृत किया है : “परम्परा क्रमागत नहीं हो सकती, यदि कोई इसकी आवश्यकता अनुभव करता है, तो उसे इसकी प्राप्ति के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है।" प्राकृत-कथाकारों ने क्रमागत परम्परा की मौलिक प्रखरता को नष्ट होने से बचाने के लिए उसे नवीन अनुभूतियों के सान पर चढ़ाकर परिवर्तित किया है । परम्परा अप्रतिहत गतिवाली निम्नाभिमुख जलधारा के समान होती है, साथ ही उसमें कारण और कार्य का सातत्य भी रहता है। किन्तु प्राकृत-कथालेखकों ने जलधारा में तिनके की तरह असहाय बहने की अपेक्षा इस धारा को अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा और श्रम-साधना के अनुरूप, तथा समय और परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार नई दिशा में मोड़ दिया है । अतीत को स्वायत्त करने का प्रयत्न और उसे वर्तमान के प्रकाश में देखने की सूक्ष्मता—ये दोनों ही बातें प्राकृत-कथाकारों को, अच्छे अर्थ में, परम्परा से सम्बद्ध करती हैं। आचार्य विमलसूरि ने 'पउमचरियं' में इसी विकासवादी दृष्टि से
अतीत की रामकथा-परम्परा को पुनर्व्याख्यापित करके अपनी मौलिक काव्यप्रतिभा का परिचय दिया है। इसीलिए, उनकी इस महत्कृति को संस्कृत की 'वाल्मीकिरामायण' के समानान्तर प्राकृत का आदिकाव्य कहा जाता है।
आचार्य विमलसूरि (द्वितीय-तृतीय शती) के परवर्ती पूर्वोक्त दोनों आचार्यों- संघदासगणिवाचक (तृतीय-चतुर्थ शती) और हरिभद्र (आठवीं-नवीं शती) ने भी अपने कथा-साहित्य के माध्यम से अतीत की सांस्कृतिक परम्परा की, समसामयिक सन्दर्भ में, पुनर्व्याख्या और पुनर्मूल्यांकन किया है। . इस प्रसंग में, आचार्य हरिभद्र सूरि (सन् ७३०-८३० ई.) की कालजयी कथाकृति 'समराइच्च- कहा' ('समरादित्यकथा') उल्लेख्य है। यह कथाकृति नौ 'भवों' या परिच्छेदों में निबद्ध है। प्रत्येक भव की कथा किसी स्थान, काल और क्रिया की भूमिका में पर्यावरण को परिवर्तित करती है। अर्थात्, एक भव की कथा अगले भव की कथा के उपस्थित होने पर अपने