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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
अप्रतिहत योद्धा हनुमान् भी वानर-वंशी थे। रामकथा के प्रसंग में विद्याधर- वंश का समावेश प्राकृत-कथासाहित्य की मौलिक विशिष्टता का परिचायक है । इन्द्र, सोम, वरुण इत्यादि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रान्तों के मानव- वंशी सामन्त थे ।
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'पउमचरियं' के नायक राम और प्रतिनायक रावण के चरित्रों को उदार मानववादी दृष्टिकोण से संवलित किया गया है। राम और रावण दोनों मानववादी हैं। जीवमात्र के कष्टों को मिटाना ही मानववाद का चरम लक्ष्य है। मानववादी के हृदय में सहानुभूति तथा पीड़ितों के साथ समवेदना की भावना उद्वेलित रहती है। वह सुखी को अधिक सुखी बनाने की अपेक्षा दुःखी को सुखी बनाने के लिए व्यग्र रहता है। वस्तुत, वातावरण ही मानववादी के स्वभाव का निर्माण करता है, इसलिए वह मानव-जाति की सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था को समुन्नत करने की आकांक्षा रखता है । 'पउमचरियं' के राम और रावण, दोनों मानव-जाति की सर्वतोमुखी समुन्नति के न केवल अभिलाषी हैं, अपितु उसके लिए कृतप्रयत्न भी हैं। चौदहवीं शती के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण' में काव्यफल का निर्देश करते हुए, 'रामादिवत्प्रवर्त्तितव्यं न रावणादिवत्' कहकर राम के चरित्र को आदर्श बताया है और रावण के दुरादर्श की अनुकृति का निषेध किया है । निश्चय ही, यह, विश्वनाथ के कथन पर, ब्राह्मण- परम्परा की रामकथा का प्रभाव है; किन्तु श्रमण-परम्परा के रावण का आदर्श रूप तो ततोऽधिक उदात्त है । 'पउमचरियं' का रावण धर्मात्मा, व्रतनिष्ठ और नीतिनिपुण व्यक्ति है । वह परम्परागत रावण की भाँति कामुक तो बिलकुल ही नहीं है, तभी तो उसने नलकुबेर की रानी उपरम्भा के काम- प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इतना ही नहीं, उस प्रस्ताविका को भी जघन्य कृत्य से विरत किया था। सीता की सुन्दरता पर मोहित होकर उसने उसका अपहरण अवश्य किया, परन्तु उसपर बलात्कार की चेष्टा कभी नहीं की । वरन् परदारापहरण-रूप अकार्य पर आत्मपश्चात्ताप करते हुए रावण ने सीता से कहा था : “अनन्तवीर्य के चरणों में मैंने व्रत लिया है कि अप्रसन्न परनारी का मैं नियमेन उपभोग नहीं करूँगा ।" वह सीता को राम के पास लौटा देना चाहता था, किन्तु उसने उन्हें इस भय से नहीं लौटाया कि लोग उसे कान समझ लें । उसने अपने मन में निश्चय किया था कि युद्ध में राम-लक्ष्मण को जीतकर परम वैभव के साथ सीता को वापस करूंगा, इससे उसकी कीर्त्ति कलंकित नहीं होगी । निश्चय ही यथार्थ की भूमि पर आधृत रावण की यह मानववादी विचारधारा उसके चरित्र को अतिशय औदात्त्य प्रदान करती है । विमलसूरि की, मानववाद के लिए अनिवार्य, विद्रोही विचारधारा का यह प्रबल प्रमाण है, जो प्राकृत - कथासाहित्य की अभिनवता की सुदृढ मूलभित्ति है ।
मानववाद के फलस्वरूप प्राकृत - कथासाहित्य में जहाँ एक ओर दृष्टिकोण में उदात्तता आ गई, वहीं प्राचीनता और शास्त्रीयता के प्रति पक्षपात की प्रवृत्ति । अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के कारण प्राकृत-कथाओं में अतिवाद या यथार्थवाद और मर्यादावाद या आदर्शवाद का अद्भुत समन्वय हो गया है । प्राकृत-कथाकार दार्शनिक या सन्त होने के बावजूद सहृदय साहित्यकार भी थे, फलतः उनकी अभिव्यंजना-विधि में अतिवादिता की कटुता मृदुल बन गई है और सतह पर दार्शनिक रूक्षता की जगह मानवता उभर आई है। प्राचीन काल में मानववादी दार्शनिक सन्त रचनाकारों ने धर्म के कट्टरपन से विद्रोह करके, फिर किसी-न-किसी प्रकार के धर्म का ही आश्रय
१. गहियं वयं किसोयरि! अणन्तविरियस्य पायमूलम्मि ।
अपसन्ना परमहिला न भुंजियव्वा मए निययं ॥ - पउमचरियं पर्व ६९, गाथा २३