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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा वातावरण, काल और स्थान का परिवर्तन करती है। सामान्यतया, प्रत्येक भव की कथा स्वतन्त्र होते हुए भी अपनी प्रभावान्विति से अगले भव की कथा को आवेष्टित करती है। फिर भी, आस्वाद में एकरसता नहीं आने पाई है, अपितु प्रत्येक भव की कथा में क्षण-क्षण नवीनता से उत्पन्न रमणीयता की रसात्मक स्फूर्ति का आह्लादक प्रस्पन्दन विद्यमान है।
प्राकृत-कथासाहित्य को उल्लेखनीय समृद्धि प्रदान करनेवाले, संघदासगणी के परवत्ती कथाकारों में आचार्य हरिभद्र तथा उनके विद्वान् शिष्य आचार्य उद्योतन सूरि (कुवलयमालाकहा' के प्रणेता) पक्तेिय हैं। बाणभट्ट (सातवीं शती का पूर्वार्ध) - रचित कूटस्थ संस्कृत-कथासाहित्य 'कादम्बरी' की प्रतिकल्पता की परवत्ती विकास-परम्परा हरिभद्र की ‘समराइच्चकहा' में दृष्टिगोचर होती है। अतएव, सम्पूर्ण भारतीय कथा-साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से 'समराहच्चकहा' का पार्यन्तिक महत्त्व है। 'वसुदेवहिण्डी' की वस्तु, शिल्प और शैलीगत प्रभावान्विति से संवलित 'समराइच्चकहा' भी संस्कृति, समाज, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान-विषयक तत्त्वों का बृहत् कोश है। इसीलिए परवर्ती काल में हरिभद्र की प्राकृत-कथाओं से कई कथानक रूढ़ियों का विकास हुआ और वे अनेक कथाकारों के कथा-ग्रन्थों का उपजीव्य बनीं। ___ 'समराइच्चकहा' में, कथानायक समरादित्य को उसके पिता द्वारा संसार में आसक्त बनाये रखने का प्रयास तथा समरादित्य द्वारा संसार को छोड़ देने का प्रयल एवं इन दोनों के बीच होनेवाला संघर्ष बड़ी मोहक शैली में वर्णित है। कहना न होगा कि इस कथा का बीज 'वसुदेवहिण्डी' की धम्मिल्ल-कथा में सुरक्षित है, जो कामकथा होते हुए भी मूलतः धर्मकथा में पर्यवसित होती है। संघदासगणी की भाँति ही हरिभद्र ने निर्वैयक्तिक भाव से दुराचारी, चोर और कामलम्पट व्यक्तियों के चरित्रों का चित्रण कर उनके चरित्रों के प्रति विकर्षण उत्पन्न किया है। स्वयं कथानायक समरादित्य को मित्रगोष्ठी द्वारा जागतिक चर्चा करके विषय-पंक में फँसाने की पूरी चेष्टा की गई है, किन्तु ठीक इसके विपरीत समरादित्य का वैराग्यभाव उत्तरोत्तर दृढ़ होता गया है। भगवान् बुद्ध के वैराग्य-कारणों की तरह, वृद्ध, रोगी और मृत ये तीन प्रधान निमित्त कुमार समरादित्य की भी वैराग्य-वृद्धि में सहायक होते हैं। कुल मिलाकर, हरिभद्र ने भी संघदासगणी की कथाशैली के समान ही यौनवृत्ति की व्यापकता और यौन वर्जनाओं के विभिन्न प्रभावक और व्यापक रूप उद्भावित किये हैं।
'वसुदेवहिण्डी' की भाँति 'समराइच्चकहा' में सौन्दर्य-चेतना आद्यन्त परिव्याप्त है। सौन्दर्यचेतना ही संस्कृति का प्रधान अंग है। शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रतिक्षण दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था ही संस्कृति है। वास्तव में, मन, आचार अथवा रुचियों का परिष्कार संस्कृति है और इसका सम्बन्ध मूलतः आत्मा के परिष्करण से है। आत्मा का परिष्कार होने पर ही उदात्त चरित्र की प्रतिष्ठा सम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आचार-व्यवहार और चिन्तन-मनन को सुन्दर तथा सुरुचिपूर्ण बनाने का उपक्रम करता है। सुन्दर बनने की यह प्रवृत्ति ही संस्कृति या संस्कार है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी महार्घ कथाकृति 'समराइच्चकहा' के द्वारा आत्मा को सुसंस्कृत बनाने के लिए शाश्वत सिद्धान्तों और नियमों की विवेचना की है। इस प्रकार, इस युगचेता कथाकार ने मध्यकालीन दलित और पतित समाज के अभ्युत्थान के लिए सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद किया है।