SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा १ स्थल पर किसी अन्त्येष्टि क्रिया के अवसर पर नृत्य के साथ हास की भी चर्चा आई है। ‘अग्निपुराण' के‘नृत्यादावङ्गकर्मनिरूपणम्' नामक प्रकरण (श्लो. १-२१) में भी नृत्य की अनेकविध मुद्राओं के भेदोपभेदों का विवरण उल्लिखित है, जिसमें अंग-प्रत्यंग (सिर, हाथ, वक्षःस्थल, पार्श्वभाग, कमर, पैर, भौंह, नाक, होंठ, ग्रीवा) की चेष्टाओं (हाव-भाव ) का वर्णन किया गया है । अग्निदेव के कथनानुसार, अंग-प्रत्यंग का चेष्टाविशेष और कर्म ही नृत्य है । यह अबलाश्रित शरीरारम्भ है ( श्लो. १) । नाट्य का भी आदिस्रोत वेद ही है। आचार्य भरत ने नाटक को पंचम वेद कहा 1 उन्होंने अपने नाट्यशास्त्र में बताया है कि ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य (संवाद), सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रसतत्त्वों को आकलित कर नाट्यवेद का निर्माण किया । २ ऋग्वेद में ऐसे सूक्त उपलब्ध हैं, जिनमें संवाद या कथोपकथन है । ये सूक्त सर्वाधिक प्राचीन रचना - प्रणाली के रूप में लिखे जाने के कारण परवर्त्ती नाट्यकृतियों की रचना का आधार बने हैं, ऐसी मान्यता बहुप्रचलित है । कथोपकथन - सूक्तों में सर्वाधिक प्रसिद्ध सूक्त पुरूरवा तथा उर्वशी का संवाद है । कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में इसी कथा का विकास पूर्ण नाटकीय रूप में दिखाई पड़ता है । 'अग्निपुराण' में भी, 'नाटक - निरूपणम्' प्रकरण में ( श्लो. १ - २७) नाटक के भेदोपभेदों का उल्लेख किया गया है । विश्वनाथ महापात्र के 'साहित्यदर्पण' के षष्ठ परिच्छेद में यथाप्रस्तुत नाटक-विषयक विवेचन बहुलांशतः 'अग्निपुराण' के इसी नाटकनिरूपण - प्रकरण पर आधृत है । अग्निदेव ने नाट्य को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का साधन बताया है : 'त्रिवर्गसाधनं नाट्यम् ।' जैनों के द्वादशांगों में तृतीय 'ठाणं' के चतुर्थ स्थान में भी नाट्य और अभिनय का उल्लेख हुआ है। उसमें नाट्य चार प्रकार के बताये गये हैं: अंचित, रिभित, आरभट और सोल । अभिनय भी चार प्रकार के कहे गये हैं: दान्तिक, प्रातिश्रुत, सामान्यतोविनिपातिक और लोकमध्यावसित । 1 अंचित : ': नाट्यशास्त्र में १०८ करण माने जाते हैं। करण का अर्थ है- अंग तथा प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ समंजसित करना । अंचित तेईसवां करण है। 'ठाणं' (मुनि नथमल द्वारा सम्पादित तथा जैनविश्वभारती, लाडनूं से प्रकाशित) की विवृति में बताया गया है कि इस नाट्याभिनय में पैरों को स्वस्तिक मुद्रा में रखा जाता है तथा दक्षिण हस्त को कटिहस्त (नृत्तहस्त) की मुद्रा में । वामहस्त को व्यावृत्त तथा परिवृत्त कर नासिका के पास अंचित करने से यह मुद्रा बनती है। 'अंचित' सिर से सम्बद्ध तेरह अभिनयों में आठवाँ है । कोई चिन्तातुर मनुष्य हाथ ३ पर ठोड़ी टिकाकर सिर को नीचा रखे, तो उस मुद्रा को 'अंचित' माना जाता है । 'राजप्रश्नीयसूत्र' में इसे २५वाँ नाट्यभेद माना गया है। आरभट : माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्ति आदि चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बन्धन आदि से उद्धत नाटक को आरभट या आरभटी कहा जाता था। विश्वनाथ महापात्र ने इसके चार १. उपरिवत् १०. १८.३ २ जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च । यजुर्वेदादभिनयान् स्सानाथर्वणादपि ॥ (१।१७) ३. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'भारतीय संगीत का इतिहास' : श्रीउमेश जोशी, पृ. ४२५
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy