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________________ २६० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा इसलिए, उनका कामशास्त्र भी सात भागों में विभक्त है, जिनका उपविभाजन चौंसठ प्रकरणों में किया गया है । अतएव, इन्हीं प्रकरणों के अनुसार इसमें उन चौंसठ कलाओं का वर्णन है, जो मानव-जीवन के पुरुषार्थ 'काम' की सिद्धि में सहायक हैं। ज्ञातव्य है कि पूर्वोक्त नन्दी-रचित सहस्राध्यायात्मक कामशास्त्र आज अप्राप्य है । ‘ललितविस्तर’ की छियासी कलाओं में परिगणित चौंसठ कामकलाओं ('चतुःषष्टि कामकलितानि चानुभविया, २१. २१५ ) से यह स्पष्ट द्योतित होता है कि उस काल तक कलाओं का काम के साथ क्षेत्र-बीजसंयोग हो चुका था और वे उदात्त आध्यात्मिकता का प्रतिलोम बन चुकी थीं । कथापण्डित क्षेमेन्द्र के 'कलाविलास' की कलासूची से यह समर्थन मिलता है कि परम्परया वेश्याएँ भी कला की अधिष्ठात्री के रूप में स्वीकृत थीं । किन्तु यह ध्यातव्य है कि द्यूत, वेश्या, पान आदि कलाओं को उत्तरकला के रूप में स्वीकार किया गया है 1 आधुनिक सौन्दर्यवादियों ने उपयोगिता और सौन्दर्य के आधार पर कला को उपयोगी कला और ललितकला – इन दो वर्गों में भले ही विभक्त कर दिया है, किन्तु पूर्वोक्त पाँच कलाओं की प्रत्येक विधा के लालित्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। कला जब भी होगी, ललित ही होगी, चाहे वह उपयोगी कला ही क्यों न हो । यद्यपि, यह भी स्पष्ट है कि उपयोगी कला का सम्बन्ध हमारी भौतिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति तथा सभ्यता के क्रम विकास से है, जबकि ललितकला हमारे सौन्दर्यबोध, सांस्कृतिक विकास और आध्यात्मिक चेतना से सम्बद्ध है। फिर भी, उपयोगिता और सौन्दर्य में किसी प्रकार का अन्तर्विरोध या पारस्परिक वैषम्य नहीं है । डॉ. कुमार विमल ने इस सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि उपयोगिता और सौन्दर्य में न तो पारस्परिक विरोध है और न इनकी युगपत् स्थिति में कर्कश रसबाध; प्रत्युत इनकी उभयनिष्ठता कान को कर्णफूल और कर्णफूल को कान प्रदान करती है । ३ कला का उपर्युक्त विभाजन वस्तुतः अरस्तू की देन है। अरस्तू के अनुसार उपयोगी कला ललितकला की भाँति प्रकृति का अनुसरण नहीं प्रस्तुत करती, अपितु उसके अभावों की पूर्ति करती है। तदनुसार, उपयोगी कला का मूल उद्देश्य मनुष्य की उन आवश्यकताओं की पूर्ति है, जिनके लिए प्रकृति ने कोई विकल्प नहीं प्रस्तुत किया है। और, उपयोगी कलाओं की यह पूर्ति-प्रक्रिया स्वतन्त्र न होकर प्रकृति के अनुकरण पर आश्रित है। इस प्रकार, कुल मिलाकर, अरस्तू का कला-सिद्धान्त अनुकरणवाद पर आधृत है। अरस्तू की यह स्थापना है कि अनुकरण कविता, संगीत और नृत्य में लय-ताल के आश्रय से सम्पन्न होता है । उक्त कलात्रयी में तालगति, भाषा और राग में से एक अथवा सबके योग से अनुकरण की सृष्टि की जाती है । कहना न होगा कि कलाओं का प्रकार-निर्धारण, विभाजन और वर्गीकरण की चर्चा पर्याप्त विवाद का विषय है तथा इसपर पाश्चात्य और पौरस्त्य कला - मनीषियों ने बहुविध विवेचन को विपुल विस्तार दिया है। स्वीकृत प्रसंग में इतना ज्ञातव्य है कि संघदासगणी जैसे प्राचीन आत्मनिष्ठ विचारक ने कलाओं १. कामसूत्र, ४१ . २. हारिण्यश्चटुलतरा बहुलतरङ्गाश्च निम्नगामिन्यः / नद्य इव जलदिमध्ये वेश्याहृदये कलाश्चतुः षष्टिः ॥ ३. कला-विवेचन (पूर्ववत्), प्र. सं., सन् १९६८ ई, पृ. ४५ कलाविलास, सर्ग४, वेश्यावृत्त
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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