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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२६१ के विभाजन और वर्गीकरण का कोई संकेत नहीं दिया है। उनकी दृष्टि में कलाएँ अपनी समग्रता और व्यापकता के सन्दर्भ में ही ग्राह्य हुई हैं।
आचार्य संघदासगणी द्वारा 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित कला-सन्दर्भ का मूलाधार 'समवायांगसूत्र' या 'औपपातिक सूत्र' में परिगणित बहत्तर कलाओं को ही माना जा सकता है; क्योंकि उन्होंने अपनी कला-चर्चा में जगह-जगह बहत्तर कलाओं का स्पष्ट उल्लेख किया है। जैसे : “देवलोगे य देवा देवीओ य सव्वे बावत्तरिकलापंडिया भवंति (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २८८)।" (अर्थात्, देवलोक में देव और देवियाँ सभी बहत्तर कलाओं में पण्डित होते हैं)। “कालेण य लेहाइयासु गणियप्पहाणासु सउणरुयपज्जवसाणासु बावत्तरीसु कलासु अभिगमो गेण कतो। (पृ. २७ : धम्मिल्लहिण्डी) " अर्थात्, धम्मिल्ल ने कालक्रम से, लेख आदि गणितप्रधान से शकुनरुत-पर्यन्त बहत्तर कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया।
'समवायांगसूत्र' के अनुसार, बहत्तर कलाएँ इस प्रकार हैं : १. लेख, २. गणित, ३. रूप, ४. नृत्य, ५. गीत, ६. वाद्य, ७. स्वरगत, ८. पुष्करगत, ९. समताल, १०. द्यूत, ११. जनवाद, १२..पोक्खच्च (द्यूतक्रीड़ा का प्रकार), १३. अष्टापद, १४. उदकमृत्तिका, १५. अन्नविधि, १६. पानविधि, १७. वस्त्रविधि, १८. शयनविधि, १९. आर्या, २०. प्रहेलिका, २१. मागधिका, २२. गाथा, २३. श्लोक, २४. गन्धयुक्ति, २५. मधुसिक्थ, २६. आभरणविधि, २७. तरुणी प्रतिकर्म, २८. स्त्रीलक्षण, २९. पुरुषलक्षण, ३०. हयलक्षण, ३१. गजलक्षण, ३२. गोण (वृषभलक्षण), ३३. कुक्कुटलक्षण, ३४. मेण्डालक्षण, ३५. चक्रलक्षण, ३६. छत्रलक्षण ३७. दण्डलक्षण, ३८. असिलक्षणा, ३९. मणिलक्षण, ४०. काकनिलक्षण, ४१. चर्मलक्षण, ४२. चन्द्रलक्षण, ४३. सूर्यचरित, ४४. राहुचरित, ४५. ग्रहचरित, ४६. सौभाग्यकर, ४७. दुर्भाग्यकर, ४८. विद्यागत, ४९. मन्त्रगत, ५०. रहस्यगत, ५१. सभास, ५२. चार, ५३. प्रतिचार, ५४. व्यूह, ५५. प्रतिव्यूह, ५६. स्कन्धावारमान, ५७. नगरमान, ५८. वास्तुमान, ५९. स्कन्धावारनिवेश, ६०. वास्तुनिवेश, ६१. नगरनिवेश, ६२. इष्वस्त्र, ६३. त्सरुप्रवाद. (छुरी, कटार, खड्ग आदि के चलाने की कला), ६४. अश्वशिक्षा, ६५. हस्तिशिक्षा, ६६. धनुर्वेद, ६७. हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक, ६८. बाहुयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, युद्ध, निर्युद्ध, युद्धातियुद्ध, ६९. सूत्रक्रीड़ा, नालिकाक्रीडा, वृत्तक्रीडा, धर्मक्रीडा, चर्मक्रीडा, ७०. पत्रच्छेद्य, कटकच्छेद्य, ७१. सजीव-निर्जीव और ७२. शकुनरुत। ___ बहत्तर कलाओं की सूची 'औपपातिकसूत्र' (१०७) में भी उपलब्ध होती है। यह सूची कुछ नामों में हेर-फेर के साथ 'समवायांग' की कलासूची से मिलती-जुलती-सी है। 'समवायांग' की कलासूची में एक संख्या के भीतर (जैसे, संख्या ६७, ६८, ६९ और ७०) अनेक कलाओं के नाम उल्लिखित हैं। इनको यदि पृथक् रूप से गिना जाय, तो कलाओं की कुल संख्या उसी प्रकार ८६ हो जाती है, जिस प्रकार महायान बौद्ध परम्परा के 'ललितविस्तर' नामक ग्रन्थ में छियासी कलाओं की सूची प्राप्त होती है। 'प्रबन्धकोश' के अन्तर्गत ‘बप्पभट्टसूरिप्रबन्ध' (पृ. २८) में जो बहत्तर कलाओं की सूची उपलब्ध होती है, वह 'समवायांगसूत्र' की सूची से बहुत भिन्न है । 'प्रबन्धकोश' की सूची में प्राच्यभाषावर्ग (संस्कृतम्, प्राकृतम्, पैशाचिकम्, अपभ्रंशम् और देशभाषा) को भी कला में परिगणित किया है, किन्तु 'समवायांग' की कलासूची में इसकी गणना नहीं की गई है। कहना न होगा ललितकला के वर्गीकरण की भाँति कलाओं की सूची में भी मतवैभिन्य पाया जाता है। इसलिए, कलाओं के यथोक्त प्रकार-निर्धारण में वैज्ञानिकता तथा नामभेदों में एकरूपता नहीं मिलती।