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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२५१ रचना-सम्बन्धी । नगर की रचना के कतिपय वास्तुमण्डन इस प्रकार हैं : नगर की रक्षा के निमित्त उसके चारों ओर परिखा (खाई) होती थी, नगर ऊँचे-ऊँचे प्राकारों से घिरा होता था, जिनके चारों
ओर (चारों दिशाओं में) चार-चार द्वार होते थे। प्राकार का आकार धनुषाकार कहा गया है। इन द्वारों में गोपुर और तोरणों की शोभा का विशेष मूल्य था। कोट या प्राकार के कपिशीर्ष (कंगूरे) ऊँचे होते थे, जिनपर शतघ्नी (तोप) आदि अस्त्र-शस्त्रों की स्थापना की जाती थी। नगर में राजमार्गों एवं चर्यापथों (फुटपाथ) को बड़ी सुव्यवस्थित रीति से बनाया जाता था, जिनमें त्रिपथ और चतुष्पथ (तिराहे और चौराहे) बड़े अच्छे ढंग से बनाये जाते थे। नगर में स्थान-स्थान पर विशाल उद्यानों, सरोवरों तथा कूपों और प्रपाओं का निर्माण किया जाता था। महल कतारों में बनाये जाते थे, साथ ही देवालयों, बाजारों और दूकानों की भी समीचीन व्यवस्था रहती थी।
संघदासगणी द्वारा वर्णित द्वारवती नगरी में प्राचीन नगर-विन्यास की, संक्षेप में ही सही, मनोरम झाँकी मिलती है : द्वारवती नगरी जनपदों की अलंकारस्वरूपा थी, चूँकि वह नगरी लवणसमुद्र के बीच में बनी थी, इसलिए लवणसमुद्र के सुस्थित नाम के देवता द्वारकावासियों के लिए समुद्र में रास्ता बनाते थे; कुबेर की बुद्धि से उस नगरी का निर्माण हुआ था, उसके प्राकार सोने के बने थे, वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी, वहाँ रत्नों की वर्षा होने से, निर्धनता ने उस नगरी का परित्याग कर दिया था, रल की प्रभा से वहाँ अन्धकार नहीं रह पाता था और चक्राकार भूमि में निर्मित हजारों-हजार प्रासादों से मण्डित वह नगरी देवलोक का प्रतिरूप प्रतीत होती थी। द्वारका के निवासी विनीत और विज्ञान (कला)-कुशल थे। उनके नाम भी मधुर थे, दयालु और दानी होने के साथ ही वे शीलवान्, सज्जन तथा सुवेश थे (पीठिका : पृ. ७७)। इसी प्रकार, कथाकार ने श्रावस्ती नगरी को 'सुप्रशस्त वास्तु का निवेश' कहा है (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २६५)। ____ संघदासगणी ने कोल्लकिर नगर के वास्तु-विन्यास को भी बड़ी रुचिरता और मनोरमता के साथ उपस्थापित किया है : कोल्लकिर नगर में 'सौमनस' नाम की वनदेवी के आयतन में अन्न
और पानी का वितरण हो रहा था और जगह-जगह सुसज्जित प्रपामण्डप (पनशाला) बने हुए थे, बादलों के वेग को रोकनेवाली प्रासाद-पंक्ति से वह नगर संकीर्ण था और नगर चारों ओर से रजतगिरि के समान परकोटे से घिरा हुआ था (चौबीसवाँ पद्मावतीलम्भ, : पृ. ३५५)।
___ संघदासगणी के अनुसार, सृष्टि के प्रारम्भ से ही वास्तुकला का उत्कर्ष उपलब्ध होता है, जिसे कथाकार ने 'बहुकालवर्णनीय' (प्रा. 'बहकालवण्णणिज्जे') कहा है। उस समय की भूमि रूप, गन्ध और स्पर्श में मनोहर और मृदुल थी, जो पंचवर्ण मणि और रत्न से भूषित सरोवर के तलभाग की भाँति सम और रमणीय थी। ऐसी ही भूमि पर निर्मित मधु, मद्य, दूध, इक्षुरस तथा प्राकृतिक जल से भरी हुई वापी, पुष्करिणी और दीर्घिकाओं की सोपान-पंक्तियाँ रत्न और श्रेष्ठ सुवर्ण से खचित थीं और उसी प्रकार की भूमि पर अनेक भवन भी बने हुए थे (चौथा नीलयशालम्भ : पृ. १५७)।
ऋषभस्वामी का जन्म होने पर शिशु का जातकर्म संस्कार सम्पन्न करने के लिए आई दिक्कुमारियों ने जिस कदलीगृह और चतुःशाला का निर्माण किया था, उसका वास्तुविन्यास भी चमत्कृत करनेवाला है : देवविमान के मध्य में रहनेवाली चार दिक्कुमारियों ने शिशु तीर्थंकर का