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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
प्रकल्पयेत् । ” देवमन्दिर के निर्माण के लिए वन का उपान्त, नदी, पर्वत, निर्झर की उपान्तभूमि और उद्यानयुक्त पुरप्रदेश प्रशस्त है । देवगृह बनवानेवाले को इष्टापूर्त्त ('यज्ञ आदि पुण्यकार्यों एवं कुआँतालाब खुदवाना, बागीचा लगवाना, अतिथिशाला बनवाना आदि धर्मकार्यों के अनुष्ठान) का फल प्राप्त होता है।
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प्राचीन वास्तुकला के मर्मज्ञ संघदासगणी ने कलावरेण्य प्रासादों के निर्माण की विभिन्न पद्धतियों का चित्रण तो किया ही है, मन्दिरों और मूर्तियों की संरचना - कला का भी मनोरम अंकन किया है। उपरिविवृत वास्तु-परिवेश में यहाँ उनके द्वारा एक साथ वर्णित नगर, मन्दिर और मूर्ति के विन्यास का कलारमणीय रूप द्रष्टव्य है : श्रावस्ती नगरी के समीपस्थित फूल-फल के भार से झुके पेड़ों से सुशोभित उपवनों में विश्राम करते हुए वसुदेव ने उस नगरी पर अपनी दृष्टि डाली । विद्याधरपुरी की शोभा धारण करती हुई वह नगरी इन्द्र की बुद्धि से निर्मित स्वर्गपुरी जैसी लग रही थी । वहाँ उन्होंने एक और मनुष्यलोक की दृष्टि को विस्मित करनेवाला मन्दिर देखा । वह मन्दिर नगर के प्राकार की तरह प्राकार से घिरा हुआ था। उस मन्दिर की भूमि विनय और नय
आवेष्टित प्रतीत होती थी। उसकी सफेदी (उज्ज्वलता) दर्शनीय थी। उसके छज्जे, अटारी और झरोखे बड़ी सुन्दरता से बनाये गये थे । उसके सोने के कंगूरे पर कपोतमाला विराज रही थी और उसका शिखर (गुम्बद ) ओषधि से प्रज्वलित रजतगिरि (वैताढ्य पर्वत) की चोटी के समान था ।
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उक्त मन्दिर को किसी देवता का आयतन समझकर वसुदेव विशाल गोपुर (मुख्यद्वार) से उस नगरी में प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने आठ सौ खम्भों से विभूषित तथा विविध काष्ठकर्म से उपशोभित मण्डप देखा, जिसमें तीन पैरोंवाला एक भैंसा प्रतिष्ठित था, जो जालगृह (सच्छिद्र गवाक्षवाला घर) में ब्रह्मासन पर बैठा था। काले रत्न से उसके शरीर की सुन्दर रचना की गई थी, उत्तम चिकनी इन्द्रनील मणि के सींग थे, लोहिताक्षमणि से गढ़ी गई उसकी लाल-लाल आँखें थीं, कीमती पद्मरागमणि से उसके खुरों का निर्माण किया गया था और गले में मूल्यवान् मोती जड़े सोने के घुँघरूओं की माला पड़ी थी (सत्रहवाँ बन्धमतीलम्भ: पृ. २६८ ) । संघदासगणी के इस भव्य वर्णन से नगर, मन्दिर और मूर्ति — इन तीनों स्थापत्य का स्पष्ट चित्र उपलब्ध होता है । संघदासगणी का यह स्थापत्य - वर्णन स्वयं उनके गहरे निरीक्षण का परिणाम है। कथाकार के इस वास्तुवर्णन में मूर्त्ति और मन्दिर के निर्माण की विधि के बड़े महत्त्वपूर्ण आयाम उद्भावित हुए हैं। देवकुल के वास्तु की परिरचना के साथ ही कथाकार ने यथाप्रसंग भूतघरों के वास्तु की भी परिकल्पना की है. ।
इसी क्रम में 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य संघदासगणी के और भी कतिपय नयनमनोहर वास्तु-विन्यास उद्धरणीय है :
द्वारवती नगरी का वास्तु प्राचीन नगर - संरचना को प्रतीकित करता है। प्राचीन नगर - संरचना की दो-एक ध्यातव्य विशेषताएँ जैन आगमों में वर्णित हैं, जिनकी आवृत्ति प्रायः सम्पूर्ण प्राकृतकथावाङ्मय के नगरों की संरचना और स्वरूप के निरूपण में उपलब्ध होती है। प्राचीन वास्तुकारों ने नगर की संरचना में उसके तीन आयामों को विशेष रूप से उभारा है: प्रथम, उसकी आर्थिक या साम्पत्तिक समृद्धि-सम्बन्धी, द्वितीय, उसकी अनेक प्रकार की कलाओं, विद्याओं, यान-वाहनों तथा मनोरंजन के साधनों की प्रचुरता-सम्बन्धी और तृतीय, नगर की वास्तु