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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा जातकर्म-संस्कार प्रारम्भ किया- नवजात के नाभिनाल को, चार अंगुल छोड़कर, काट डाला और उसे धरती में गाड़ दिया, फिर उस गड्ढे को रल और दूर्वा से भरकर वहाँ वेदी (पीठिका) बना दी। उसके बाद उन्होंने अपनी वैक्रियिक शक्ति से दक्षिण, पूर्व और उत्तर- इन तीनों दिशाओं में मरकत मणि की भाँति श्यामल आभूषणों से मण्डित कदलीघर का निर्माण किया और फिर कदलीघर के मध्यभाग में कल्पवृक्ष की, स्वर्णजाल से अलंकृत चतुःशाला बनाई । उसमें उन्होंने पुत्रसहित जिनमाता को मणिमय सिंहासन पर बैठाकर क्रम से तेल-उबटन लगाया (तत्रैव : पृ. १६०)। प्रस्तुत कदलीगृह का वास्तु-विन्यास विद्या-विकुर्वित है, इसलिए वास्तुकल्पज्ञ कथाकार द्वारा इसके निर्माण की विधि में की गई लोकोत्तर भावकल्पना का मिश्रण असहज नहीं है।
इक्कीसवें केतुमतीलम्भ (पृ. ३१४) में, संघदासगणी द्वारा स्वयंवर-मण्डप का मनोहारी वास्तुविधान उपन्यस्त किया गया है। राजा अर्ककीर्ति की पुत्री सुतारा के लिए पोतनपुर के राजा त्रिपृष्ठ द्वारा आयोजित स्वयंवर के निमित्त मण्डप सजाया गया। मण्डप के दोनों ओर कमल से ढके जलपूर्ण स्वर्णकुम्भ रखे गये और मण्डप को मणिमण्डित तोरणों से अलंकृत किया गया; सरस और सुगन्धयुक्त मालाओं से वेष्टित सैंकड़ों स्तम्भ बनाये गये; स्वर्णकमलों की मालाओं से आवेष्टित विपुल पुतलियाँ खड़ी की गईं, पाँच रंग के फूलों से मण्डपभूमि को आच्छादित किया गया और घ्राण तथा मन को प्रिय लगनेवाले विविध धूप जलाये गये। उसके बाद विद्याधर-सहित सभी राजा अपने-अपने राजचिह्नों से अलंकृत होकर, देवकुमार के समान सज-धजकर मंच पर आरूढ हुए।
तीर्थंकर अरनाथ ने प्रव्रज्या ग्रहण करने के उद्देश्य से जिस वैजयन्ती नाम की शिविका पर सवार होकर महाभिनिष्क्रमण किया था, उसकी कलात्मक वास्तुसज्जा कथाकार संघदासगणी के वास्तुपरक मण्डन-विधान ('शुक्रनीतिसार' के अनुसार, नौका, रथ आदि सवारियों के बनाने की कला) की सूक्ष्मज्ञता का उद्घोष करती है : उसके बाद बहुकालवर्णनीय वैजयन्ती शिविका उपस्थित की गई, जो उत्तम सोने की श्रेष्ठ रचना से विभूषित थी। उसमें कल्पवृक्ष के फूल सजे थे, जिनपर भौरे गुंजार कर रहे थे। उसके स्तूप में विद्रुम, चन्द्रकान्त, पद्मराग, अरविन्द, नीलमणि और स्फटिक जड़े हुए थे। उसके सोने के खम्भों में अंजन और लाल रंग से मिश्रित रेखाओं से बालकों (बालकाकृति पुतलियों) को चित्रित किया गया था, जिनके मुख-विवर से मुक्ताजल के निकलने का विलास प्रदर्शित था। उसमें मरकत, वैडूर्य और पुलकमणि से खचित वेदिका बनी हुई थी। गोशीर्षचन्दन की छटा से दमकती तथा कालागुरु धूप से वासित उस शिविका से निकलता हुआ मोहक सौरभ सभी दिशाओं में फैल रहा था। देव और मनुष्य उस शिविका को ढो रहे थे (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ : पृ. ३४७) ।
___ गवाक्षों से झाँकते हुए स्त्रीमुख की अंकन-रुचि भारतीय स्वर्णकाल के वास्तु की विशेषता थी। संघदासगणी ने भी 'वसुदेवहिण्डी' में, जगह-जगह, प्रसंगानुसार भवन के वातायनों (खुली खिड़कियों, गवाक्षों (जालीदार खिड़कियों) एवं द्वारों पर आकर सुन्दरियों के झाँकने या पुष्पवृष्टि करने आदि का वर्णन किया है। रूपवान् वसुदेव जब घर से बाहर निकलते थे, तब रूपलोलुप तरुणियाँ वातायनों, गवाक्षों एवं द्वारों पर आकर उनके पुनर्दर्शन की प्रतीक्षा में चित्रांकित-सी खड़ी रहकर पूरा दिन बिता देती थीं। मूल इस प्रकार है: “कुमारो सारयचंदो विव जणणयणसुहओ