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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा बहुजनसाउहकयपरिवारो... ।” (पुण्ड्रालम्भ : पृ. २१३)। यह ‘अवलोकन राजभवन के ऊँचे शिखर पर छतदार बरामदे या मण्डप के रूप में होता था, जहाँ से राजा-रानी नगर के और नगर के बाहर के दृश्यों का अवलोकन करते थे। कथानायक वसुदेव ने भी तारक सेठ के विमान के 'अवलोकन' से नगर के बीच का दृश्य देखा था। बड़े भवनों को विमान कहा जाता था, जो प्राय: सात मंजिलों से कम का नहीं होता था। कालिदास ने भी अलका-वर्णन के क्रम में विमानाग्रभूमि' की चर्चा अपने मेघदूत-काव्य में की है।
पुराकाल में राजभवन से सम्बद्ध वास्तु प्रेक्षागृह भी हुआ करता था। संघदासगणी ने उल्लेख किया है कि वसुदेव के साथ नीलयशा की पाणिग्रहण-विधि पूरी होने के बाद वर-बधू को प्रेक्षागृह (= पेच्छाघर) में बैठाया गया, जहाँ दोनों का विशिष्ट शृंगार-प्रसाधन किया गया (नीलयशालम्भ : पृ. १८०)। प्रेक्षागृह को नाट्यशाला या रंगशाला कहते हैं, जहाँ नाट्यकर्मियों के लिए शृंगार-प्रसाधन की विविध सामग्री की व्यवस्था रहती है । इसीलिए, वसुदेव और नीलयशा को प्रेक्षागृह में ले जाकर बैठाया गया था। परिचारिकाएँ प्रेक्षागृह में उन्हें सजाकर वासगृह (शयनगृह) में ले गई थीं, जहाँ स्वर्णदीप जल रहे थे। संघदासगणी के अनुसार, प्रेक्षागृह से सम्बद्ध भोजनगृह भी था, तभी तो वसुदेव जब दूसरे दिन प्रात: जगे, तब प्रसाधनकार्य-कुशल परिचारिकाओं ने उनका प्रसाधन किया। उसके बाद वासगृह से निकलकर वे प्रेक्षागृह में आये, जहाँ उनके लिए कलमदान चावल का सुपाच्य भोजन उपस्थित किया गया।
प्राचीन युग के राजभवन से सम्बद्ध विविध वन-उपवन-उद्यान और क्रीड़ागृह भी होते थे। जैसे : लतागृह, जालगृह, कदलीगृह आदि । संघदासगणी ने इन वास्तुओं का एक साथ उल्लेख किया है । वेगवती के अपहरण हो जाने के बाद, वसुदेव उसे प्रमदवन में, उसकी सखी के घर में
और फिर इधर-उधर खोजने लगे। जब वह कहीं नहीं दिखाई पड़ी, तब वसुदेव उसे क्रीड़ा के निमित्त गई हुई मानकर आगे बढ़े और लतागृह, जालगृह और कदलीगृह में ढूँढ़ने लगे। (वेगवतीलम्भ : पृ. २२५)। भारतीय स्वर्णकाल के कवियों में प्राय: सभी ने अपनी काव्यकृतियों या कथाग्रन्थों में लतागृह या लतामण्डप (लताओं से निर्मित मण्डपाकार स्थान) का उल्लेख किया है, किन्तु संघदासगणी द्वारा चित्रित जालगृह, मोहनगृह और कदलीगृह, ये तीनों नातिचर्चित वास्तु हैं। जालगृह, जालीदार खिड़कियोंवाले घर को कहा जाता था, जिसमें बैठकर अन्त:पुरवासी लोग बहिर्भाग का दृश्यावलोकन करते थे। संघदासगणी के पूर्ववर्ती महाकवि कालिदास ने भी जालीदार गवाक्ष का चित्रण किया है : “जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या.........(रघुवंश: ७.९) ।" इसके अतिरिक्त 'मेघदूत' में भी अनेक जगह 'जाल' का प्रयोग महाकवि ने किया है (उत्तरमेघ, ६-७) । कदलीगृह, कदलीस्तम्भ से निर्मित या कदलीवृक्ष से आवेष्टित घर को कहा जाता था। कालिदास ने प्रत्यक्ष रूप से ‘कदलीगृह' की चर्चा तो नहीं की है; किन्तु कनककदली से आवेष्टित, समणीय, अतएव दर्शनीय क्रीडाशैल का वर्णन अवश्य किया है। कदलीगृह भी तो अन्तःपुरवासिनी ललनाओं के १. अवलोकन = प्रासाद के सबसे ऊपरी भाग में एक ऐसा छोटा मण्डप या स्थान, जहाँ से बाहर की ओर
देखा जा सके। 'दिव्यावदान' में इसे 'अवलोकनक' (पृ. २२१) कहा गया है। - द्र. चतुर्भाणा : सं. डॉ.
मोतीचन्द्र तथा डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, संस्करण : सन् १९५९ ई, पृ. १७२ की टिप्पणी। २. नेत्रानीताः सततगतिना यद्विमानाप्रभूमीः। मेघदूत, उ. मे. ६ ३. क्रीडाशैलः कनककदलीवेष्टनप्रेक्षणीयः।-मेघदूत, उ. मे. १४