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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ ही रचना की है। इसमें उन्होंने बताया है कि चतुश्शाल भवन के अनेक भेद होते हैं और राजाओं के लिए आठ सौ हाथ के व्यास में निर्मित चतुश्शाल शुभप्रद होता है। धम्मिल्ल को यह चतुश्शाल राजभवन कुशाग्रपुर के राजा अमित्रदमन से प्राप्त हुआ था। ___चौथे नीलयशालम्भ (पृ. १७१) में संघदासगणी ने सर्वतोभद्र प्रासाद का उल्लेख किया है। कथा है कि एक दिन स्वयम्प्रभा सन्ध्या समय 'सर्वतोभद्र' प्रासाद पर बैठी हुई थी, तभी उसने नगर के बाहर, देव को आकाश से उतरते देखा । ('कयाइं च पओसे सव्वओभद्दगं पासायमभिरूढा पस्सामि नयरबाहिं देवसंपायं)। प्राचीन दैवज्ञ वास्तुकारों में वराहमिहिर (ई.पू. प्रथम शती) और उनकी पार्यन्तिक ज्योतिष-कृति 'बृहत्संहिता' की बड़ी प्रसिद्धि है । वराहमिहिर ने अपनी उक्त कृति में सर्वतोभद्र प्रासाद की निर्माणविधि दी है और उस क्रम में बताया है कि उत्तमगृह का विस्तार जितने हाथ होगा, उसके सोलहवें भाग में चार हाथ योग करने से प्राप्त योगफल ही उस गृह का 'उच्छाय' (ऊँचाई) होगा। उच्छ्राय से नौगुने और अस्सी हाथ में उसके दशांश को घटाने से जो बचेगा, वही स्तम्भ के अग्रभाग का परिमाण होगा। स्तम्भ के भी पाँच प्रकार हैं: रुचक, वज्र (अष्टकोण), द्विवज्र (षोडशकोण), प्रलीनक (बत्तीस कोनोंवाला) और वृत्तगुप्त (वृत्ताकार)। स्तम्भ के परिमाण में नौ का भाग देने से जो भागफल होता है, वह 'वहन' है। जिस वास्तु के चारों ओर इसी प्रकार के वहन और द्वार होते हैं, वह ‘सर्वतोभद्र' कहलाता है। सचमुच, सर्वतोभद्र प्रासाद प्राचीन वास्तुविद्या के शैल्पिक चमत्कार की ओर संकेत करता है।
वराहमिहिर ने निर्देश किया है कि जिस वास्तु के शालाकुड्य (भवन-भित्ति) के चारों ओर सभी अलिन्द (चबूतरा) प्रदक्षिण भाव में निम्नभाग तक जाते हैं, उसे 'नन्द्यावर्त्त' कहते हैं। इस वास्तु में पश्चिम-द्वार नहीं होता। संघदासगणी ने शान्तिजिन के पूर्वभव की कथा (केतुमतीलम्भ) के क्रम में, अपराजित के भव की चर्चा का उपक्रम करते हुए, प्राणत कल्प के नन्द्यावर्त और स्वस्तिक विमान (भवन) का उल्लेख किया है। यथानाम स्वस्तिक भवन की संरचना स्वस्तिक चिह्न के आकार की होती थी। संघदासगणी द्वारा संकेतित नन्द्यावर्त और स्वस्तिक-भवन का समर्थन ‘समरांगणसूत्रधार' से भी होता है। प्राचीन वास्तुशास्त्र में कहा गया है कि जिस वास्तु के पश्चिम की ओर एक तथा पूर्व की ओर दो अलिन्द शेष तक रहते हैं और जिसके दो ओर के अलिन्द उत्थित और शेष सीमा तक विवृत (फैले) रहते हैं, उसको ‘स्वस्तिक' वास्तु कहते हैं। इसमें पूर्वद्वार नहीं होता।
प्राचीन वास्तु में छतदार बरामदे की संरचना की जाती थी। संघदासगणी रे इस प्रकार के वास्तु को ‘अवलोकन' (= अवलोयण) की संज्ञा दी है: “अवलोयणगएण य मे दिट्ठो नयरमज्झे १. चतुश्शालानि वेश्मानि यानि तेषां शतद्वयम् । द्विचत्वारिंशदधिकं चतुश्शालशताष्टकम् ॥ श्रेष्ठमष्टशतं राज्ञामेतानि तु यथाक्रमम् ।
(श्लोक सं.३,६ और १६) २. नन्द्यावर्तगृहे सर्वा नन्द्यावर्ता भवन्ति ताः।
द्वे मूषे रुचके स्यातामायते त्ववकोसिमे ॥ त्रिनाभमुत्तरद्वारं शस्तं सर्वगुणान्वितम् । आधाद्वितुर्यासप्तम्यो यत्र तत् स्वस्तिक स्मृतम् ॥
(अ. २४, श्लो.७८ और १३९)