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________________ २३८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा नहीं है, तथापि शस्त्रविद्या के मुख्य तीन भेदों (आघात, छेदन और भेदन) में से आघात भी इसमें मिश्रित है। आघात में लाठी या इसी जाति के अन्य शस्त्रों की गणना है। नरभक्षी पुरुष ने सर्वप्रथम लाठी से ही वसुदेव पर आघात किया था, किन्तु वसुदेव ने लाठी के इस दाँव को बचा लिया था। मल्लविद्या, शस्त्रविद्या से निकृष्ट होते हुए भी, प्राचीन भारत में अतिशय प्रचलित थी। पाणिनि, अनुभूतिस्वरूपाचार्य आदि प्राचीन भारतीय वैयाकरणों के द्वारा 'अलं योगे चतुर्थी' के उदाहरण के रूप में 'अलं मल्लो मल्लाय' का प्रयोग इस बात का सबल साक्ष्य है। 'वसुदेवहिण्डी' से युद्धनियम के सन्दर्भ में यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन भारत में युद्ध प्रारम्भ करने के पूर्व दूत भेजकर चेतावनी दी जाती थी। दूत को अपमानित कर वापस भेज देना युद्ध की अवश्यम्भाविता का संकेत होता था। अश्वग्रीव का दूत चण्डसिंह जब पोतनपुर भेजा गया था, तब अचल और त्रिपृष्ठ ने उसे बहुत अपमानित किया था (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७६) । शत्रुओं या प्रतिपक्षियों की पहचान के निमित्त ज्योतिषियों के आदेश का भी आश्रय लिया जाता था। अस्त्रहीन व्यक्ति के साथ अस्त्रहीन होकर ही लड़ा जाता था। यह नियम न केवल मानव-शत्रु, अपितु वन्य हिंसक जन्तु के सन्दर्भ में भी लागू था। तभी तो अश्वग्रीव का प्रतिशत्रु त्रिपृष्ठ जब पश्चिम प्रदेश में सिंहभय को शान्त करने गया था, तब वह महाबलशाली सिंह को पैदल चलते देखकर स्वयं रथ से नीचे धरती पर उतर पड़ा और सोचा, “यह सिंह तो निरायुध है, इसलिए आयुध के साथ इससे लड़ना ठीक नहीं।" तब, त्रिपृष्ठ ने अपना हथियार फेंक दिया और केवल भुजाओं के प्रहार से ही सिंह को मार डाला (तत्रैव : पृ. २७७) । प्राचीन काल में राजाओं या विद्याधरों के बीच युद्ध के दो ही प्रमुख कारण रहे हैं– प्रतिपक्ष की कन्या का आयत्तीकरण और अधीनस्थता या वशंवदता का अस्वीकरण; अर्थात्, राज्यप्राप्ति और कन्याप्राप्ति । यों, रानी या राजा का प्रतिपक्षियों द्वारा अपहरण कर लिये जाने पर भी उनकी वापसी के लिए युद्ध करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता था। विद्याधर प्रायः अपने विद्याबल से यान, वाहन, सैन्य, अस्त्र-शस्त्र आदि विकुर्वित करके लड़ते थे, साथ ही वे मायायुद्ध करते थे तथा भयंकर मन्त्रसिद्ध अस्त्रों का भी प्रयोग करते थे। अश्वग्रीव विद्याधर के सैनिकों ने तालपिशाच, श्वान, शृगाल, सिंह आदि के भयंकर रूपों की रचना करके पानी, आग, अस्त्र-शस्त्र आदि वस्तुएँ त्रिपृष्ठ की सेना पर फेंककर उसे पराजित करने की चेष्टा की थी (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१२)। प्राचीन काल के योद्धा शंख भी बजाते थे। कुछ योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्र तो उनके अपने खास हुआ करते थे। परशुराम का कुठार, अर्जुन का गाण्डीव, शिव का त्रिशूल आदि इसके उदाहरण हैं। महाभारत-युद्ध में कृष्ण के महिमाशाली पांचजन्य शंख की प्रभुता आज भी अविस्मरणीय बनी हुई है। केशव के प्रतिरूप त्रिपृष्ठ ने जब अपना महास्वन (भयंकर आवाज करनेवाला) शंख बजाया, तब माया और इन्द्रजाल का प्रयोग करनेवाले तथा स्वेच्छा-निर्मित रूप धारण करनेवाले (कामरूप) विद्याधरों ने उस शंख की क्षुब्ध समुद्र के समान गम्भीरतर आवाज को वज्रपात की भाँति सुना और वे चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए। कुछ कायर विद्याधरों के हाथों से शस्त्र गिर पड़े और कुछ परकटे पक्षी की भाँति धरती पर लुढ़क गये (तत्रैव)। प्राचीन युद्ध में राजा परोक्ष में ही रहकर अपने सेनापतियों को युद्ध-संचालन का आदेश-निर्देश देते थे और उनके सैनिक गाजर-मूली की भाँति कटते रहते थे। बलवान् राजा जब इस बात की
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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