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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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भयानकता का अनुभव करते थे, तब प्रतिपक्षी राजा को स्वयं युद्धभूमि में प्रत्यक्ष होकर लड़ने का सन्देश दूत के द्वारा भेजते थे । दूत अवध्य होता था । ऐसी ही स्थिति में त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव के पास अपने दूत के द्वारा सन्देश भिजवाया था : “यह युद्ध तो मेरे और तुम्हारे बीच हो रहा है । इसलिए, दूसरे बेचारों के वध से क्या लाभ? सिंह को जगाकर खरगोश की तरह क्यों छिपे हुए हो ? यदि राज्य प्राप्ति की इच्छा है, तो एक रथ पर अकेले मेरे साथ युद्ध करो अथवा मेरी शरण
आ जाओ ।" अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ का सामरिक आमन्त्रण स्वीकार कर लिया। उसके बाद दोनों की सेनाएँ प्रेक्षक के रूप में खड़ी हो गईं (तत्रैव)। स्पष्ट है कि प्राचीन युद्ध के नियमानुसार दो राजा एकाकी भाव से जब परस्पर लड़ते थे, तब शेष सेनाएँ तटस्थ हो जाती थीं ।
रानी के अपहरण कर लिये जाने पर दुःखातुर राजा प्रतिपक्षी राजा के पास पहले दूत भेजकर रानी को लौटा देने का आग्रह करता था। नहीं लौटाने पर युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता था। रानी 'सुतारा' के अपहर्त्ता अशनिघोष ने जब राजा श्रीविजय के साले अमिततेज विद्याधर द्वारा प्रेषित मरीचि दूत के सन्देश को ठुकरा दिया, तब दोनों ओर से भयंकर लड़ाई प्रारम्भ हो गई। रोषाविष्ट श्रीविजय ने, युद्धभूमि में, अमोघ प्रहार करनेवाले खड्ग के आघात से अपनी पत्नी के अपहर्त्ता अशनिघोष के दो टुकड़े कर दिये । अशनिघोष मायावी था। उसके जितने टुकड़े होते, उतने ही अशनिघोष उत्पन्न हो जाते । अन्त में, श्रीविजय ने महाजालविद्या द्वारा उसे पराजित किया (तत्रैव : पृ. ३१८) । इस सन्दर्भ में 'दुर्गासप्तशती' में वर्णित रक्तबीज दैत्य की कथा स्मरणीय हैं। रक्तबीज के रक्त की जितनी बूँदें गिरती थीं, उनसे उतने ही रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे ।
आधुनिक काल में विद्याधर और उनके मायायुद्ध या मन्त्रसिद्ध आयुधों का प्रयोग स्वैर कल्पना का विषय बन गया है, किन्तु छलयुद्ध या कूटयुद्ध आधुनिक काल में भी प्राचीन मायायुद्ध की भावस्मृति को उद्भावित करते हैं । 'महाभारत' में कौरव - पाण्डवों के बीच हुए छलयुद्ध के अनेक उदाहरण आज भी सुरक्षित हैं ।
संघदासगणी द्वारा उपन्यस्त युद्धवर्णनों में, सत्ताईसवें रोहिणीलम्भ (पृ. ३६५) का युद्धवर्णन भी उल्लेख्य है । ढोलकिया के छद्मरूप में अवस्थित वसुदेव को कोशल- जनपद के राजा रुधिर की पुत्री रोहिणी ने जब पति के रूप में वरण कर लिया, तब जरासन्ध के उकसाने पर स्वयंवर में उपस्थित सभी क्षत्रिय राजा भड़क उठे । इनमें वसुदेव के जेठे भाई समुद्रविजय भी थे । स्वयंवर के लिए समागत क्षत्रिय राजाओं और राजा रुधिर के सैन्यों के बीच युद्ध शुरू हुआ । विविध आयुधों से आपूरित, फहरती ध्वजाओंवाले रथ रणांगन में दौड़ने लगे; फूँके जाते हुए शंख की ध्वनि से कोलाहल मच गया; कुम्भस्थल से झरते मदजलवाले मत्त हाथियों के दाँतों की टकराहट की होड़ लग गई; वेग से दौड़ते हुए घोड़े के कठोर खुरों से आहत धरती से उड़नेवाली धूल, आँखों में धुन्ध और किरकिरी पैदा करने लगी एवं क्रुद्ध योद्धाओं द्वारा छोड़े गये बाणों से सूर्य की रश्मियाँ आच्छादित हो गईं। उसी समय अरिंजयपुर के अधिपति विद्याधरराज दधिमुख ने वसुदेव को दर्शन दिया । उसने वसुदेव को प्रणाम करके उनके लिए विद्याबल से रथ तैयार कर दिया । वसुदेव रथ पर आरूढ हो गये । स्वयं विद्याधरराज उनका सारथी बना ।
स्वयंवर में उपस्थित क्षत्रियों से, राजा रुधिर अपने पुत्र हिरण्यनाभसहित पराजित होकर भाग चला। किन्तु दधिमुख के साथ वसुदेव अकेले डटे रहे। उन्हें डटा हुआ देखकर सभी राजा