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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा के सारे रथ, घोड़े और हाथी नष्ट कर दिये । अन्त में, वसुदेव ने मेघसेन को बन्दी बनाकर उसे अभग्नसेन के सेनापति के जिम्मे सौंप दिया।
इस प्रकार, संघदासगणी ने प्राचीन युद्धविधि का सांगोपांग लोमहर्षक चित्र उपन्यस्त कर दिया है। प्रस्तुत प्रसंग से युद्ध के कतिपय महत्त्वपूर्ण प्राक्कालीन नीति-नियम भी उभर कर सामने आते हैं। नियमानुसार, रथी के साथ रथी, घुड़सवार के साथ घुड़सवार, हस्त्यारोही के साथ हस्त्यारोही और पदाति के साथ पदाति योद्धा ही युद्ध करते थे। योद्धा इस युद्ध-नियम के पालन में सदा तत्पर रहते थे। प्राचीन काल के युद्ध में, रथ के सारथी की भूमिका बड़ी मूल्यवान् होती थी। सारथी स्वयं रथचर्या के अतिरिक्त धनुर्विद्या या आयुधवेद में पारंगत होता था। इसीलिए, महाभारत में कृष्ण, एक सारथी के रूप में ततोऽधिक प्रतिष्ठित हैं। बाणविद्या में विफल अथवा युद्ध में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने पर राजा को अस्त्र और रथहीन करके उसे बन्दी बना लिया जाता था। जो योद्धा यथार्थ स्थिति या युद्ध की नीति के जानकार नहीं होते थे, वे अन्धाधुन्ध बाण चलाकर निन्दा के पात्र बनते थे। यदि परस्पर दो सम्बन्धियों में युद्ध होता था, तो वे एक दूसरे की शरीर-रक्षा करते हुए लड़ते थे। इस प्रकार, प्राचीन युद्ध के नियमों में हिंसा और अहिंसा-नीतियों का अद्भुत समन्वय रहता था।
पाँचवें सोमश्रीलम्भ (पृ. १८७) में, भरत के साथ बाहुबली के युद्ध के वर्णन-क्रम में, संघदासगणी ने कतिपय अतिसूक्ष्म और विस्मयकारी युद्धविधियों का उल्लेख किया है। भरत के छोटे भाई तथा तक्षशिला के अधिपति बाहुबली ने जब समग्र भारतवर्ष के शासक राजा भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की, तब भरत पूरी सेना के साथ तक्षशिला-विजय के लिए प्रस्थित हो गये। बाहुबली तक्षशिला से निकलकर राज्य की सीमा पर आया और वहीं उसने भरत से मोर्चा लिया। दोनों में पहले उत्तम कोटि का युद्ध- दृष्टियुद्ध हुआ। दृष्टियुद्ध में आँख स्थिर रखकर परस्पर एक दूसरे की आँख में आँख डालकर देखना पड़ता था। भरत इस युद्ध में पराजित हो गया, यानी उसकी पलकें झपक गईं। तब, दोनों में मध्यम कोटि का मुष्टियुद्ध आरम्भ हुआ। इसमें भी भरत अपने को पराजित मान चिन्तित हो उठा। उन्हें जब अपना चक्रवत्ती-पद हाथ से फिसलता हुआ दिखाई पड़ा, तभी देवी ने उनके हाथ में चक्र दे दिया।
उसी समय बाहुबली ने चक्रसहित भरत को आते देख उनपर वीरोचित व्यंग्य किया : "आपने अधम युद्ध का आश्रय ले लिया। मुष्टियुद्ध में हार गये, तो हथियार उठा लिया !" भरत ने कहा : “मैंने अपनी इच्छा से अस्त्र नहीं उठाया, देवी ने मेरे हाथ में दे दिया है।" बाहुबली का व्यंग्य तीखा हो उठा : “यदि आप श्रेष्ठ पुरुष का पुत्र होकर भी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं, तो फिर सामान्य लोगों की क्या गिनती? इसमें आपका दोष नहीं है। ऋषभस्वामी का पुत्र होने के नाते लोग आपकी प्रशंसा करते हैं, लेकिन आप विषयलोलुपता के कारण अकार्य करते रहते हैं। यदि आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष विषय के अधीन होकर अकार्य करते हैं, तो इस प्रकार के परिणामवाले भोग व्यर्थ हैं।" यह विचार कर बाहुबली ने सब प्रकार के हिंसा-व्यापारों को छोड़ने का संकल्प किया और कायोत्सर्ग करने लगा। अन्त में, भरत, बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ को राज्य देकर पश्चात्ताप करते हुए अपने नगर अयोध्या लौट आये।