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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
में लेते ही वह प्रज्वलित हो उठा। तब उस त्रिपृष्ठ ने तरुण सूर्य के समान भासमान चक्र को अश्वग्रीव के वध के लिए छोड़ा। वह चक्र अश्वग्रीव का सिर लेकर वापस चला आया ।
ब्राह्मण-परम्परा में जिस प्रकार केशव या विष्णु के सुदर्शन चक्र की परिकल्पना की गई है, · उसी प्रकार श्रमण - कथाकार संघदासगणी ने केशव - प्रतिरूप प्रजापति -पुत्र त्रिपृष्ठ के अस्त्र के रूप में 'सहस्रारचक्र' की परिकल्पना की है। 'सहस्रारचक्र' भी देवाधिष्ठित ही था, तभी तो दुष्ट विद्याधर अश्वग्रीव द्वारा प्रक्षिप्त ‘सहस्रारचक्र' भगवत्स्वरूप केशवप्रतिरूप त्रिपृष्ठ का अनुगत हो गया और उसके संकेत पर ही संचालित होता रहा । इसीलिए, व्यन्तरों ने आकाश से उद्घोष किया था कि भारतवर्ष में यह वासुदेव उत्पन्न हुआ है। कहना न होगा कि शस्त्रास्त्रों के मानवीकरण या दैवीकरण की यह भावना प्राचीन भारती की सांग्रामिकता में चिराचरित प्रथा बन गई थी ।
“वसुदेवहिण्डी” के कथानायक वसुदेव स्वयं आयुधविद्या के विशेषज्ञ थे। जब वह भूलते-भटकते हुए शालगुह सन्निवेश में पहुँचे, तब विश्राम करने की इच्छा से उस सन्निवेश के बहिर्भाग में स्थित उद्यान में चले गये। वहाँ राजा अभग्नसेन के लड़के आयुधविद्या का अभ्यास कर रहे थे। वसुदेव ने उनसे पूछा : “क्या तुमलोग गुरु के उपदेश से शस्त्र चलाने का अभ्यास कर रहे हो, या 'अपनी मति से ?” राजकुमार बोले : "हमारे उपाध्याय का नाम पूर्णाश है। अगर
आयुधविद्या जानते हो, तो हम सभी देखना चाहते हैं कि तुम्हें कहाँतक अस्त्रशिक्षा प्राप्त है । " निशानेबाजी में निपुण वसुदेव से राजकुमारों ने जहाँ-जहाँ कहा, वहाँ-वहाँ उन्होंने बाण फेंककर दिखाया । वसुदेव के अचूक निशाने से विस्मित होकर वे उनसे कहने लगे : “तुम हमारा उपाध्याय बन जाओ।" वसुदेव ने कहा : "मैं पूर्णाश की आशा को तोड़ना नहीं चाहता।" फिर भी, राजकुमार वसुदेव के पीछे पड़ गये : “कृपा करो, हम सभी तुम्हारे शिष्य हैं।” वसुदेव ने राजकुमारों का उपाध्याय बनना स्वीकार कर लिया ।
राजकुमारों ने वसुदेव के लिए आवास की व्यवस्था की और अपने उपाध्याय पूर्णाश को सूचना दिये विना वे उनकी (वसुदेव की) सेवा करने लगे । राजकुमार क्षणभर के लिए भी वसुदेव को नहीं छोड़ते थे और उनके लिए भोजन-वस्त्र की भी चिन्ता करते रहते थे । पूर्णाश को इसकी खबर मिली। शास्त्रवेत्ताओं से घिरा हुआ वह वसुदेव के पास आया और उनसे पूछने लगा : " आयुधविद्या जानते हो ?” तब, वसुदेव ने कहा: “मैं अस्त्र जानता हूँ, अपास्त्र और व्यस्त्री जानता हूँ। पैदल या हस्त्यारोही सैनिक लिए अस्त्र है, घुड़सवार के लिए अपास्त्र है और खड्ग, कनक, तोमर, भिन्दिपाल, शूल, चक्र आदि व्यस्त्र हैं। मैं अस्त्र छोड़ने के तीन प्रकार भी जानता हूँ: दृढ, विदृढ और उत्तर ।” वसुदेव के अस्त्र साधने की प्रक्रियाओं के प्रदर्शन से पूर्णाश चकित रह गया। उसके बाद जिज्ञासा करने पर वसुदेव ने पूर्णाश को धनुर्वेद-विद्या की उत्पत्ति बताई (पद्मालम्भ : २०१-२०२ ।
इस प्रकार, संघदासगणी की, आयुधवेद की जानकारी, प्राचीन धनुर्विद्या पर आधृत होते हुए भी, लक्षण, वर्गीकरण, प्रयोग और अधिकारी प्रयोक्ता के निरूपण की दृष्टि से, उसकी उपस्थापनपद्धति सर्वथा मौलिक है और इसीलिए वह भारतीय प्राचीन अस्त्रविदों की गणना में पांक्तेय स्थान
अधिकारी प्रमाणित होते हैं। संघदासगणी केवल कथाकार ही नहीं थे, अपितु भारतीय प्राच्यविद्या के आचार्य थे । इसीलिए, कथाक्रम में यथाप्रसंग उनका आचार्यत्व. बड़ी प्रखरता से मुखरित